Saturday, 20 January 2018

अरस्तु का अनुकरण सिद्धांत


यूनानी भाषा में अरस्तु का वास्तविक नाम, अरिस्तोतेलेस है. उनकी प्रतिभा बहुमुखी थी. वे अनेक विधाओं के आचार्य थे. अरस्तु ने काव्य-कला को राजनीति तथा नीतिशास्त्र की परिधि में न देखकर सौन्दर्यशास्त्री की दृष्टि से देखा और उन्होंने कविता को दार्शनिक, राजनीतिज्ञ तथा नीतिशास्त्री के अत्याचार से मुक्त किया.



कला के प्रति इसी दृष्टिकोण-भेद के फलस्वरूप प्लेटो और अरस्तु के 'अनुकरण सिद्धांत' सम्बन्धी विचारों में मतभेद है. 'अनुकरण' शब्द यूनानी भाषा के 'मिमेसिस' के पर्याय रूप में प्रस्तुत हुआ है. अरस्तु ने अपनी पुस्तक 'पेरिपोइतिकेस' के आरम्भ में ही स्पष्ट कर दिया कि अन्य कलाओं कि भांति काव्य भी अनुकरणधर्मी कला है: ''चित्रकार अर्थात किसी भी अन्य कलाकार की ही तरह कवि अनुकर्ता है.'' काव्य रचना के विभिन्न रूप-त्रासदी, महाकाव्य, कामदी आदि भी अनुकरण के ही प्रकार है.
अरस्तु कला को प्रकृति की ही अनुकृति मानते है. प्रकृति से अरस्तु का अभिप्राय प्रकृति या जगत के बाह्य, स्थूल, गोचर रूप के साथ-साथ आंतरिक रूप से भी था. चित्रकार अथवा किसी भी अन्य कलाकार की तरह कवि को अनुकर्ता स्वीकार करते हुए, उन्होंने 'अनुकर्ता' की प्रकृति की व्याख्या की. उनके अनुसार अनुकार्य अनिवार्यतः इन तीन प्रकार की वस्तुओं में से कोई एक हो सकती है- जैसी वे थी या है, जैसी वे कही या समझी जाती है अथवा जैसी वे होनी चाहिए. अरस्तु के अनुसार कवि को स्वतंत्रता है की वह प्रकृति को उस रूप में चित्रित करे जैसी वह उसकी इन्द्रियों को प्रतीत होती है अथवा जैसी वह भविष्य में प्रतीत हो सकती है अथवा जैसी वह होनी चाहिए.
अरस्तु ने कवि और इतिहासकार में अंतर बताते हुए स्पष्ट किया है कि ''कवि और इतिहासकार में वास्तविक भेद यह है कि एक तो उसका वर्णन करता है जो घटित हो चूका है और दूसरा उसका वर्णन करता है जो घटित हो सकता है. परिणामतः काव्य में दार्शनिकता अधिक होती है. उसका स्वरुप इतिहास से भव्यतर होता है, क्योकि काव्य सामान्य(सार्वभौम) की अभिव्यक्ति है और इतिहास विशेष की.''

अरस्तु के व्याख्याकार-
अनेक आलोचकों ने अरस्तु की भिन्न भिन्न प्रकार से व्याख्या की है, किन्तु एक बात में सभी सहमत है कि अरस्तु ने अनुकरण का प्रयोग प्लेटो की भांति स्थूल यथावत प्रतिकृति के अर्थ में नहीं किया.
१. प्रो. बुचर का मत है- अरस्तु के अनुकरण का अर्थ है-''सदृश्य विधान अथवा मूल का पुनरुत्पादन, सांकेतिक उल्लेखन नहीं. कोई भी कलाकृति मूल वस्तु का पुनरुत्पादन, जैसी वह होती है वैसी नहीं अपितु जैसी वह इन्द्रियों को प्रतीत होती है, वैसा करती है. कलाकृति इन्द्रिय-सापेक्ष पुनः सृजन है, यथातथ्य अनुकरण नहीं. कला का संवेदन तत्व ग्राहिणी बुद्धि के प्रति नहीं अपितु भावुकता और मन की मूर्ति विधायिनी शक्ति के प्रति होती है.
२. प्रो. गिल्बर्ट मरे ने यूनानी शब्द 'पोयतेस' को आधार बनाकर अनुकरण की व्युत्पत्तिमूलक व्याख्या प्रस्तुत की है. उनके अनुसार कवि शब्द के पर्याय में ही अनुकरण की धारणा निहित है, किन्तु अनुकरण का अर्थ सर्जना का आभाव नहीं है.

३. स्कॉट जेम्स का मत- इन्होंने अनुकरण को जीवन के कल्पनात्मक पुनर्निर्माण का पर्याय माना है. इनकी दृष्टि में- 'अरस्तु के काव्यशास्त्र में अनुकरण से अभिप्राय है साहित्य में जीवन का वस्तुपरक अंकन, 'जिसे हम अपनी भाषा में जीवन का कल्पनात्मक पुनर्निर्माण कह सकते है.'
४. पॉट्स का मत- इनके अनुसार- ''अपने पूर्ण अर्थ में अनुकरण का आशय है ऐसे प्रभाव का उत्पादन, जो किसी स्थिति, अनुभूति तथा व्यक्ति के शुद्ध प्रकृत रूप से उत्पन्न होता है.'' वस्तुतः इनके अनुसार अनुकरण का अर्थ है- 'आत्माभिव्यंजन से भिन्न जीवन की अनुभूति का पुनः सृजन.'
ये व्याख्याएं अपने आप में महत्वपूर्ण है. फिर भी अरस्तु के शब्दों को प्रमाण मानकर अनुकरण का विवेचन करना ही समीचीन होगा.

अनुकरण की शक्ति-
अरस्तु ने अनुकरण को नया अर्थ प्रदान कर कला का स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित किया है. सुन्दर को शिव से अधिक विस्तृत माना है. इसके साथ ही अरस्तु ने प्लेटो द्वारा कला पर लगाए गए आक्षेपों का निराकरण किया है और कविता को दार्शनिकता तथा नीतिकार के बंधन से छुटकारा दिलाया है. उन्होंने अनुकरण की हीनता का उन्नयन किया है.
अनुकरण की सीमाएँ-
अरस्तु ने अनुकरण में व्यक्तिपरक भाव-तत्व की अपेक्षा वस्तुपरक भाव-तत्व को अधिक महत्व दिया है, जो निश्चय ही अनुचित है. उनकी परिधि बड़ी संकुचित है, उनमे कवि की अंतश्चेतना को उतना महत्व नहीं दिया गया जितना दिया जाना चाहिए थे. कवि जीवन में विभिन्न अनुभवों के बीच से गुजरता है, नाना प्रभाव ग्रहण करता है और इन सबसे उसकी अंतश्चेतना का निर्माण होता है.

निष्कर्ष-

सत्य कभी एकदेशीय नहीं होता. उसकी उपलब्धि तो किसी न किसी रूप में हो ही जाती है. किन्तु उपलब्धि की विधि और उसका आधारभूत दृष्टिकोण भी काम महत्वपूर्ण नहीं होता. अरस्तु ने काव्य या कला को प्रकृति का अनुकरण मानता है. अपने सम्पूर्ण विवेचन में उनका दृष्टिकोण इसी कारण अभावात्मक रहा तथा त्रास एवं करुणा का विवेचन उसकी चरम सिद्धि रही है. अतः कला अनुकरण होते हुए भी नवीकरण है, सृजन रूप है.


सन्दर्भ सामग्री: 

१. पाश्चात्य काव्यशास्त्र:- देवेन्द्रनाथ शर्मा
२. पाश्चात्य साहित्य-चिंतन:- निर्मला जैन, कुसुम बांठिया
३. आलोचक और आलोचना:- बच्चन सिंह
४. पश्चिम का काव्य विचार:- अजय तिवारी
५. काव्यशास्त्र-निरूपण:- डॉ. विजयकुमार



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