अरस्तू ने 'विरेचन' शब्द का प्रयोग अपने काव्यशास्त्र के छठे अनुच्छेद के आरम्भ में त्रासदी की परिभाषा देते हुए, केवल एक बार किया है : ''त्रासदी किसी गंभीर स्वतः पूर्ण तथा निश्चित आयाम से युक्त कार्य की अनुकृति का नाम है, जिसका माध्यम नाटक के भिन्न-भिन्न भागों में भिन्न-भिन्न रूप में प्रयुक्त सभी प्रकार के आभरणों से अलंकृत भाषा होती है, जो समाख्यान रूप में न होकर कार्य-व्यापार रूप में होती है और जिसमे करुणा तथा त्रास के उद्रेक द्वारा इन मनोविकारों का उचित विरेचन किया जाता है।'' अरस्तू ने न तो 'विरेचन सिद्धांत' की कोई परिभाषा दी न ही उसकी व्याख्या की. 'विरेचन' का यूनानी अर्थ 'कैथार्सिस' है।
अरस्तू के द्वारा प्रयुक्त शब्द कैथार्सिस की मूल धातु कैथारिओं का अर्थ है सफाई करना या अशुद्धियों को दूर करना, अतः कैथार्सिस का व्युत्पत्तिपरक अर्थ हुआ शुद्धिकरण। अरस्तू ने 'विरेचन' शब्द का ग्रहण चिकित्साशास्त्र से किया था, इस मत का प्रचार सं १८५७ में जर्मन विद्वान बार्नेज के एक निबंध से हुआ, और तदुपरांत इस प्रायः स्वीकार किया जाने लगा। इन अनुमान के दो कारण थे:- (१) अरस्तू स्वयं वैध पुत्र थे और (२) उनके पूर्व प्लेटो या किसी अन्य विचारक ने साहित्य के संदर्भ में इस शब्द का प्रयोग नहीं किया था।
चिकित्साशास्त्र में इस शब्द का अर्थ था रोचक औषधि द्वारा उदारगत विकारों का निदान, अस्वास्थ्यकर पदार्थों का बहिष्कार कर शरीर को स्वस्थ करना। सम्भावना यही है की प्लेटो के काव्य प्रभाव सम्बन्धी आक्षेपों का उत्तर देने के लिए अरस्तु ने चिकित्साशास्त्र से इस शब्द को ग्रहण कर त्रासदी के प्रसंग में इसका प्रयोग लाक्षणिक अर्थ में किया।
अरस्तू के परवर्ती व्याख्याकारों ने लक्षण के आधार पर 'विरेचन' के तीन अर्थ किये-
१. धर्म-परक
२. नीति-परक
३. कला-परक
१) धर्म-परक:- यूनान में भी भारत की तरह नाटक का आरम्भ धार्मिक उत्सवों से ही हुआ। अरस्तू के जीवन काल में ही रोम में यूनानी त्रासदी का प्रवेश हो चूका था और वह किसी कलात्मक उद्देश्य के लिए नहीं, अपितु अन्धविश्वाश के कारण हुआ था। वहाँ के लोग मानते थे कि धार्मिक उत्सव मानाने से दैवी विपत्ति दूर हो सकती है। स्पष्ट है कि यूनान कि धार्मिक संस्थाओं में बाह्य विकारों के द्वारा आंतरिक विकारों कि शांति और उसके शमन का यह उपाय अरस्तू को ज्ञात था और संभव है उन्हें 'विरेचन' सिद्धांत की प्रेरणा मिली हो। काव्यशास्त्र के बाईवाटर कृत अनुवाद की भूमिका लिखते हुए गिलबर्ट ने यह स्पष्ट किया कि लिवी के अनुसार रोम में यूनानी का प्रवेश कलात्मक परितोष के लिए नहीं, बल्कि एक धार्मिक अन्धविश्वाश के रूप में महामारी के निवारण के लिए हुआ था।
'विरेचन का धर्म परक अर्थ स्वीकार करने वाले विद्वानों का मत है की अरस्तू ने विरेचन का लाक्षणिक प्रयोग धार्मिक आधार पर किया है और उसका अर्थ था-बाह्य उत्तेजना और अंत में शमन द्वारा आत्मिक शुद्धि और शांति।
२) नीतिपरक:- विरेचन कि नीतिपरक व्याख्या का श्रेय जर्मन विद्वान् बर्नेज को दिया जाता है। उनके अनुसार मानव मन में अनेक मनोविकार वासना रूप में स्थिर रहते है। त्रासदी रंगमंच पर ऐसे दृश्य प्रस्तुत करती है जिसमे ये मनोवेग अतिरंजित रूप में प्रस्तुत किये जाते है। प्रेक्षक त्रासदी को देख कर मानसिक सुख का अनुभव करता है क्यूंकि उसके मन में वासना रूप में स्थित परना और त्रास आदि मनोवेगों का दंश समाप्त हो जाता है। यही भाव-विचार हमे हमारा खोया हुआ मानसिक संतुलन लौटकर हमें स्वस्थ बनता है।इस प्रकार मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विरेचन का अर्थ हुआ करुणा और भय नामक मनोवेगों कि उत्तेजना द्वारा संपन्न अंतर्वृत्तियों का शमन अथवा मन कि शांति और परिष्कृति।अरस्तु के शब्दों में शुद्धि का अनुभव अर्थात आत्मा की विशदता और प्रसन्नता।
३) कला-परक:- विरेचन की कलापरक व्याख्या करने वाले विद्वानों में प्रमुख रूप से प्रो. बूचर शामिल है। बूचर का कहना है कि: ''त्रासदी का कार्य केवल करुणा या त्रास के लिए अभिव्यक्ति का माध्यम प्रस्तुत करना भर नहीं है, बल्कि इन्हे सुनिश्चित परितोष प्रदान करना है। इन्हें कला के माध्यम में ढालकर परिष्कृत तथा स्पष्ट करना है।'' इसी प्रकार विरेचन का चिकित्सा शास्त्रीय अर्थ करना अरस्तू के अभिप्राय को सीमित कर देना होगा। बूचर के अनुसार मानसिक संतुलन इस प्रक्रिया का पूर्व पक्ष है जिसकी परिणति कलात्मक परिष्कृति और उससे उत्पन्न कलागत आस्वाद से होता है। त्रासदी के अस्वाद का वृत्त उसके बिना पूरा नहीं होता।
डॉ. नगेन्द्र ने उपर्युक्त व्याख्या पर विचार करते हुए अपने मत प्रस्तुत किया है। इनके अनुसार विरेचन की प्रक्रिया के दो पक्ष है: भावात्मक और अभावात्मक। करुणा और त्रास का उद्रेक और शमन से निष्पन्न मानसिक संतुलन इसका अभावात्मक अर्थात पूर्व पक्ष है। उनके अनुसार अरस्तू ने जिस रूप में विरेचन का प्रयोग और चर्चा की है उसमे भावों का उद्रेक और शमन एवं तज्जन्य मनःशांति अर्थात अभावात्मक पक्ष की व्यंजना तो मिलती है किन्तु विरेचन में कलात्मक आनंद अर्थात भावात्मक पक्ष का अंतर्भाव करना उचित नहीं होगा।
शिकागो के नव अरस्तूवादी आलोचकों ने अरस्तू के सिद्धांतों की पुनर्व्याख्या का सिलसिला आरम्भ किया तो इस क्रम में स्वभावतः अनुकरण और विरेचन पर भी विचार किया गया। चाहे तो उनकी व्याख्या को संरचनावादी या एक हद तक कलावादी कहा जा सकता है। गोल्डस्टीन ने आग्रहपूर्वक कहा कि विरेचन कलापरक अवधारणा है जिससे न किसी मनोवैज्ञानिक तथ्य कि व्यंजना होती है और न ही सिर्फ वैज्ञानिक तथ्य कि।यह मूलतः कला सिद्धांत है।
डी.डब्ल्यू.लूकस भी इस मत से सहमत दिखाई पड़ते हैं। उनके अनुसार कैथार्सिस का अर्थ 'शुद्धिकरण' करने पर उससे एक प्रकार के उत्कर्ष की अर्थ-व्यंजना होती हैं। अतः पूर्ववर्ती व्याख्याकारों ने यह मानकर संतोष कर लिया कि त्रासदी नैतिक उत्कर्ष कि साधक होती है।
निष्कर्ष यह कि संरचनागत व्याख्या के अनुसार विरेचन प्रेक्षक के मनोविकारों का नहीं, विषयवस्तु का होता है। जीवनगत घटनाएँ कलागत सामग्री में रूपांतरित होने कि प्रक्रिया में दुःख के देश से मुक्त होकर ग्राह्य हो जाती है। यही विरेचन है।
सन्दर्भ सामग्री:
१. पाश्चात्य काव्यशास्त्र:- देवेन्द्रनाथ शर्मा
२. पाश्चात्य साहित्य-चिंतन:- निर्मला जैन, कुसुम बांठिया
३. आलोचक और आलोचना:- बच्चन सिंह
४. पश्चिम का काव्य विचार:- अजय तिवारी
५. काव्यशास्त्र-निरूपण:- डॉ. विजयकुमार
२. पाश्चात्य साहित्य-चिंतन:- निर्मला जैन, कुसुम बांठिया
३. आलोचक और आलोचना:- बच्चन सिंह
४. पश्चिम का काव्य विचार:- अजय तिवारी
५. काव्यशास्त्र-निरूपण:- डॉ. विजयकुमार
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