प्लेटो पाश्चात्य काव्यशास्त्र के आदि आचार्य थे. वे मूलतः दार्शनिक थे . दर्शन के अतिरिक्त राजनीति, तर्कशास्त्र, साहित्य, समाजशास्त्र, शिक्षा आदि अनेक विषयों को उन्होंने अपनी मान्यताओं से प्रभावित किया था. प्लेटो सार्शनिक होते हुए भी कवि हृदय संपन्न थे. प्लेटो के गुरु सुकरात थे, प्लेटो पर उनका प्रभाव अत्यंत गंभीर था. प्लेटो की काव्यात्मक, भव्य, उदात्त शैली बताती है कि वे मूलतः कवि थे. किन्तु सुकरात के संपर्क में आने के बाद उन्होंने अपनी काव्य रचनाओं को नष्ट कर दिया.
पाश्चात्य आलोचना के जनक प्लेटो मूलतः आलोचक नहीं, अपितु आदर्शनिक है. उनका उद्देश्य आलोचनात्मक सिद्धांतो का निरूपण नहीं अपितु अपने गुरु कि दार्शनिक मान्यताओं का उपस्थापन है. उनकी सभी मान्यताये उनके प्रसिद्ध ग्रन्थ 'रिपब्लिक' में देखी जा सकती है. दार्शनिक होने के कारण वे सत्य के समर्थक है. कवि होते हुए और काव्य के प्रसंशक होते हुए भी जो काव्य सत्य कि कसौटी पर खरा नहीं उतरता, उसे वह हेय और निंदनीय समझते है. होमर के प्रति उनकी श्रद्धा थी, किन्तु उनकी दृष्टि में होमर का काव्य सत्य से दूर, काल्पनिक था, इसलिए उन्होंने यह कहकर होमर कि निंदा की, कि सत्य के मूल्य पर किसी का सम्मान करना अनुचित है-- ''it would be wrong to honour a man at the expense of truth''. (रिपब्लिक)
काव्य-सत्य: प्लेटो ने काव्य को अग्राह्य मन है. इसके दो आधार हैं-- दर्शन और प्रयोजन. प्लेटो आदर्शवादी दार्शनिक थे. आदर्शवाद(प्रत्ययवाद) के अनुसार प्रत्यय अर्थात विचार ही पराम् सत्य है. वह अखंड है. ईश्वर उसका स्रष्टा है. यह गोचर जगत उस परम सत्य का अनुकरण है, क्युकी कलाकार किसी वास्तु को ही अपनी कला के द्वारा चित्रित करता है. इस क्रम में कला तीसरे स्थान पर आती है. प्रथम स्थान पर प्रत्यय या परम सत्य है, दूसरे पर उसके प्रतिबम्बित वास्तु जगत और तीसरा स्थान है वस्तु जगत या गोचर जगत के प्रतिबिंबित कला जगत का. अतः कला सत्य से तिगुनी दूर है और अनुकरण का अनुकरण होने के कारण मिथ्या है. प्लेटो ने 'अनुकरण' शब्द का प्रयोग दो संदर्भों में किया है- पहला विचार जगत और गोचर जगत के बिच सम्बन्ध की व्याख्या के लिए और दूसरा वास्तविक जगत और कला जगत के बीच समबन्ध निरूपण के लिए.
प्लेटो के सम्पूर्ण चिंतन का मुख्य उद्देश्य है-आदर्श राज्य का निर्माण. उनके कला सम्बन्धी विचार भी आदर्श नागरिकों की शिक्षा के सन्दर्भ में व्यक्त किये गए है. प्लेटो के अनुसार सत्य वह है जिससे समाज और व्यक्ति के नैतिक और आध्यात्मिक जीवन को बल मिले. इसके विपरीत जो भी है, उसे वह असत्य मानते है, कला को भी वह इसी कसौटी पर परखते है. प्लेटो ने देखा की जीवन में जो उदात्त और वांछनीय है, काव्य में उसके विपरीत है, अर्थात काव्य में अनुदात्त और अवांछनीय तत्व अधिक है, जैसे रोना, चिल्लाना, शोक प्रकट करना आदि. अतः प्लेटो ने काव्य सत्य को त्याज्य माना. त्रासदी के सम्बन्ध में प्लेटो ने लिखा था, ''ट्रेजडी का कवि हमारे विवेक को नष्ट कर हमारी वासनाओं को जगाता है, उनका पोषण करता है और उन्हें पुष्ट करता है.'' काव्य में इसी हानिकारक प्रभाव को वह वास्तविक सत्य नहीं मानते.
प्लेटो की दृष्टि में काव्य सृजन की प्रक्रिया व गुण:- प्लेटो ने काव्य के सृजन प्रक्रिया पर विचार किया है, उनके सृजन-विषयक विचार मुख्यतः 'इयोन' नामक संवाद में मिलते है. काव्य सृजन के संबंध में प्लेटो की एक अत्यंत महत्वपूर्ण मान्यता यह है कि सभी समर्थ कवि, चाहे वह महाकाव्य जैसे वृहद ग्रन्थ के प्रणेता हो अथवा प्रगीत जैसी रम्य एवं सुललित रचनाओं के, अपनी काव्य रचना वे किसी सचेष्ट कलात्मक प्रेरणा द्वारा नहीं बल्कि दैवी शक्तियों से प्रेरित एवं अभिभूत होकर करते है. यानी कवि-कट=कर्म किसी वैज्ञानिक पद्धति पर अवलम्बित नहीं रहता. प्लेटो के अनुसार कवि में सृजन कि क्षमता का प्रादुर्भाव अलौकिक शक्ति के रूप में होता है. कलात्मक सिद्धि के रूप में नहीं. दैवी प्रेरणा के प्रभाव को प्लेटो इतनी दूर तक स्वीकार करते है कि उनके अनुसार: ''कोई भी कवि जबतक बोध शक्ति को धारण करता है, तब तक काव्य के देववाणी तुल्य उपहार का अधिकारी नहीं होता.'' प्लेटो के अनुसात अलौकिक-शक्ति द्वारा अधिकृत कवि स्रष्टा नहीं, उसका प्रवक्ता मात्र होता है. सृजन क्षण को प्लेटो सचेष्ट प्रयत्न न मान क्र अनायास घटित घटना मानते है. कवि को कविता का निमित्त कारन मानकर प्लेटो ने उसे सभी दायित्वों से मुक्त कर दिया है. प्लेटो ने प्रेरणा सिद्धांत का प्रतिपादन कविता को वैज्ञानिक ज्ञान से अलगाने के लिए किया, कवि कि अवमानना या आदर के लिए नहीं.
प्लेटो काव्य के सरलता पर बल देते है. सरलता से उनका अभिप्राय किसी एक सिद्धांत का पालन करना था और वह सिद्धांत प्लेटो के लिए न्याय का सिद्धांत है: ''Nothing must be tolerated which does not express the sovereign image of justice.'' वह काव्य में उद्देश्य कि एकता, अन्विति तथा लयात्मकता पर भी बल देते है.
काव्य का प्रभाव:- प्लेटो ने कविता कि प्रकृति के साथ ही उसके प्रभाव पर भी विचार किया है. 'गणतंत्र' के दसवें अध्याय में जहाँ उन्होंने कविता को सत्य के निम्नतर स्तर का चित्रण माना है, वही मनोवैज्ञानिक दृष्टि से कविता को आत्मा के अधम भाग से सम्बद्ध घोषित किया है. प्लेटो के अनुसार मानवात्मा कि प्रकृति दुहरी होती है. जिसमे उत्तम भाग के अंतर्गत बुद्धि और विवेक की गणना की गई है और शोक, क्रोध आदि मनोविकारों को अधम स्थान दिया गया है. कविता इन्ही मनोविकारों को उद्दीप्त करती है इसलिए उसका प्रभाव आत्मा के निम्नतर स्तर से सम्बद्ध है. प्लेटो के शब्दों में: ''अनुकरणधर्मी कवि का लक्ष्य लोकप्रियता होता है किन्तु लोकप्रिय होने के लिए वह आत्मा के बौद्धिक पक्ष को प्रभावित करके श्रोताओं को प्रसन्न नहीं करता बल्कि वह सहज उत्तेजनशील संवेगों को संचालित करना पसंद करता है जो अपेक्षाकृत सरल कार्य है.''
पाश्चात्य आलोचना में प्लेटो का जितना विशिष्ट स्थान है उतना ही प्रभावी भी. आलोचना के क्षेत्र में प्लेटो की सबसे बड़ी देन यह है की उन्होंने साहित्य सिद्धांतो को दार्शनिक रूप दिया.
सन्दर्भ सामग्री:
१. पाश्चात्य काव्यशास्त्र:- देवेन्द्रनाथ शर्मा
२. पाश्चात्य साहित्य-चिंतन:- निर्मला जैन, कुसुम बांठिया
३. आलोचक और आलोचना:- बच्चन सिंह
४. पश्चिम का काव्य विचार:- अजय तिवारी
५. काव्यशास्त्र-निरूपण:- डॉ. विजयकुमार
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पाश्चात्य आलोचना के जनक प्लेटो मूलतः आलोचक नहीं, अपितु आदर्शनिक है. उनका उद्देश्य आलोचनात्मक सिद्धांतो का निरूपण नहीं अपितु अपने गुरु कि दार्शनिक मान्यताओं का उपस्थापन है. उनकी सभी मान्यताये उनके प्रसिद्ध ग्रन्थ 'रिपब्लिक' में देखी जा सकती है. दार्शनिक होने के कारण वे सत्य के समर्थक है. कवि होते हुए और काव्य के प्रसंशक होते हुए भी जो काव्य सत्य कि कसौटी पर खरा नहीं उतरता, उसे वह हेय और निंदनीय समझते है. होमर के प्रति उनकी श्रद्धा थी, किन्तु उनकी दृष्टि में होमर का काव्य सत्य से दूर, काल्पनिक था, इसलिए उन्होंने यह कहकर होमर कि निंदा की, कि सत्य के मूल्य पर किसी का सम्मान करना अनुचित है-- ''it would be wrong to honour a man at the expense of truth''. (रिपब्लिक)
काव्य-सत्य: प्लेटो ने काव्य को अग्राह्य मन है. इसके दो आधार हैं-- दर्शन और प्रयोजन. प्लेटो आदर्शवादी दार्शनिक थे. आदर्शवाद(प्रत्ययवाद) के अनुसार प्रत्यय अर्थात विचार ही पराम् सत्य है. वह अखंड है. ईश्वर उसका स्रष्टा है. यह गोचर जगत उस परम सत्य का अनुकरण है, क्युकी कलाकार किसी वास्तु को ही अपनी कला के द्वारा चित्रित करता है. इस क्रम में कला तीसरे स्थान पर आती है. प्रथम स्थान पर प्रत्यय या परम सत्य है, दूसरे पर उसके प्रतिबम्बित वास्तु जगत और तीसरा स्थान है वस्तु जगत या गोचर जगत के प्रतिबिंबित कला जगत का. अतः कला सत्य से तिगुनी दूर है और अनुकरण का अनुकरण होने के कारण मिथ्या है. प्लेटो ने 'अनुकरण' शब्द का प्रयोग दो संदर्भों में किया है- पहला विचार जगत और गोचर जगत के बिच सम्बन्ध की व्याख्या के लिए और दूसरा वास्तविक जगत और कला जगत के बीच समबन्ध निरूपण के लिए.
प्लेटो के सम्पूर्ण चिंतन का मुख्य उद्देश्य है-आदर्श राज्य का निर्माण. उनके कला सम्बन्धी विचार भी आदर्श नागरिकों की शिक्षा के सन्दर्भ में व्यक्त किये गए है. प्लेटो के अनुसार सत्य वह है जिससे समाज और व्यक्ति के नैतिक और आध्यात्मिक जीवन को बल मिले. इसके विपरीत जो भी है, उसे वह असत्य मानते है, कला को भी वह इसी कसौटी पर परखते है. प्लेटो ने देखा की जीवन में जो उदात्त और वांछनीय है, काव्य में उसके विपरीत है, अर्थात काव्य में अनुदात्त और अवांछनीय तत्व अधिक है, जैसे रोना, चिल्लाना, शोक प्रकट करना आदि. अतः प्लेटो ने काव्य सत्य को त्याज्य माना. त्रासदी के सम्बन्ध में प्लेटो ने लिखा था, ''ट्रेजडी का कवि हमारे विवेक को नष्ट कर हमारी वासनाओं को जगाता है, उनका पोषण करता है और उन्हें पुष्ट करता है.'' काव्य में इसी हानिकारक प्रभाव को वह वास्तविक सत्य नहीं मानते.
प्लेटो की दृष्टि में काव्य सृजन की प्रक्रिया व गुण:- प्लेटो ने काव्य के सृजन प्रक्रिया पर विचार किया है, उनके सृजन-विषयक विचार मुख्यतः 'इयोन' नामक संवाद में मिलते है. काव्य सृजन के संबंध में प्लेटो की एक अत्यंत महत्वपूर्ण मान्यता यह है कि सभी समर्थ कवि, चाहे वह महाकाव्य जैसे वृहद ग्रन्थ के प्रणेता हो अथवा प्रगीत जैसी रम्य एवं सुललित रचनाओं के, अपनी काव्य रचना वे किसी सचेष्ट कलात्मक प्रेरणा द्वारा नहीं बल्कि दैवी शक्तियों से प्रेरित एवं अभिभूत होकर करते है. यानी कवि-कट=कर्म किसी वैज्ञानिक पद्धति पर अवलम्बित नहीं रहता. प्लेटो के अनुसार कवि में सृजन कि क्षमता का प्रादुर्भाव अलौकिक शक्ति के रूप में होता है. कलात्मक सिद्धि के रूप में नहीं. दैवी प्रेरणा के प्रभाव को प्लेटो इतनी दूर तक स्वीकार करते है कि उनके अनुसार: ''कोई भी कवि जबतक बोध शक्ति को धारण करता है, तब तक काव्य के देववाणी तुल्य उपहार का अधिकारी नहीं होता.'' प्लेटो के अनुसात अलौकिक-शक्ति द्वारा अधिकृत कवि स्रष्टा नहीं, उसका प्रवक्ता मात्र होता है. सृजन क्षण को प्लेटो सचेष्ट प्रयत्न न मान क्र अनायास घटित घटना मानते है. कवि को कविता का निमित्त कारन मानकर प्लेटो ने उसे सभी दायित्वों से मुक्त कर दिया है. प्लेटो ने प्रेरणा सिद्धांत का प्रतिपादन कविता को वैज्ञानिक ज्ञान से अलगाने के लिए किया, कवि कि अवमानना या आदर के लिए नहीं.
प्लेटो काव्य के सरलता पर बल देते है. सरलता से उनका अभिप्राय किसी एक सिद्धांत का पालन करना था और वह सिद्धांत प्लेटो के लिए न्याय का सिद्धांत है: ''Nothing must be tolerated which does not express the sovereign image of justice.'' वह काव्य में उद्देश्य कि एकता, अन्विति तथा लयात्मकता पर भी बल देते है.
काव्य का प्रभाव:- प्लेटो ने कविता कि प्रकृति के साथ ही उसके प्रभाव पर भी विचार किया है. 'गणतंत्र' के दसवें अध्याय में जहाँ उन्होंने कविता को सत्य के निम्नतर स्तर का चित्रण माना है, वही मनोवैज्ञानिक दृष्टि से कविता को आत्मा के अधम भाग से सम्बद्ध घोषित किया है. प्लेटो के अनुसार मानवात्मा कि प्रकृति दुहरी होती है. जिसमे उत्तम भाग के अंतर्गत बुद्धि और विवेक की गणना की गई है और शोक, क्रोध आदि मनोविकारों को अधम स्थान दिया गया है. कविता इन्ही मनोविकारों को उद्दीप्त करती है इसलिए उसका प्रभाव आत्मा के निम्नतर स्तर से सम्बद्ध है. प्लेटो के शब्दों में: ''अनुकरणधर्मी कवि का लक्ष्य लोकप्रियता होता है किन्तु लोकप्रिय होने के लिए वह आत्मा के बौद्धिक पक्ष को प्रभावित करके श्रोताओं को प्रसन्न नहीं करता बल्कि वह सहज उत्तेजनशील संवेगों को संचालित करना पसंद करता है जो अपेक्षाकृत सरल कार्य है.''
पाश्चात्य आलोचना में प्लेटो का जितना विशिष्ट स्थान है उतना ही प्रभावी भी. आलोचना के क्षेत्र में प्लेटो की सबसे बड़ी देन यह है की उन्होंने साहित्य सिद्धांतो को दार्शनिक रूप दिया.
सन्दर्भ सामग्री:
१. पाश्चात्य काव्यशास्त्र:- देवेन्द्रनाथ शर्मा
२. पाश्चात्य साहित्य-चिंतन:- निर्मला जैन, कुसुम बांठिया
३. आलोचक और आलोचना:- बच्चन सिंह
४. पश्चिम का काव्य विचार:- अजय तिवारी
५. काव्यशास्त्र-निरूपण:- डॉ. विजयकुमार
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