Tuesday, 9 January 2018

पाश्चत्य काव्यशास्त्री (शुरुआत से..)

साहित्य चिंतन की पाश्चात्य परंपरा लगभग उतनी ही पुरानी है जितनी भारत की. पाश्चात्य काव्यशास्त्र मूलतः ग्रीक काव्यशास्त्र है. ग्रीक का ही दूसरा नाम यूनान है. यूरोप में व्यवस्थित काव्य-चिन्तन का आरम्भ प्लेटो से माना जाता है. प्लेटो से पूर्व ग्रीक काव्य-चिंतन में मुख्यतः तीन सिद्धांतों की उद्भावना हो चुकी थी- प्रेरणा का सिद्धांत, अनुकरण का सिद्धांत और विरेचन का सिद्धांत.



प्लेटो से पूर्व युग में मान्यता थी की काव्य-रचना के क्षणों में कवि दैवी शक्ति से आविष्ट होता है. वह केवल माध्यम होता है, उसमें न स्वयं की कला-निपूर्णता होती है और न शब्द-रचना की क्षमता; उससे रचना करने वाली ईश्वरीय प्रेरणा होती है. उनका यह भी मन्ना था की काव्य रचना के लिए ईश्वरीय प्रेरणा सबको नहीं प्राप्त होती, जिसकी आत्मा पवित्र निर्दोष और निर्विकार होती है, उन्हें ही यह दैवी शक्ति प्राप्त होती है.
काव्य रचना की प्रेरणा को दैवी मानने का एक कारण ये आलोचक यह भी स्वीकार करते है  की महान काव्य-कृतियों में औदात्य होता है और वे अपने पाठकों को उच्चतर मूल्यों के प्रति प्रेरित करके, उन्हें प्रकारांतर से शिक्षित भी करती हैं.
प्लेटो-पूर्व युग में 'होमर' एक प्रमुख काव्य चिंतक माने जाते हैं. 'दि इलियट' , 'दि ओडिसी' , 'हिम टू अपोलो' रचनाये विख्यात हैं. 'होमर' की रचना 'हिम टू अपोलो' और 'अरिस्तोफानेस' की रचना की रचना 'वीमेन सेलिब्रेटिंग दि थेसमोफ़ोरिया' में कला को अनुकरणमूलक बताया गया हैं. अनुकरण के लिए होमर ने 'माइमेसिस' शब्द का प्रयोग किया हैं. यद्यपि यहाँ अनुकरण का ठीक वही अर्थ नहीं हैं जिस अर्थ में बाद में प्लेटो ने इसे प्रस्तुत किया हैं, किन्तु इसमें अनुकरण सिद्धांत का बीजवपन निहित हैं.
'विरेचन सिद्धांत' का बीज प्लेटो से पूर्व दार्शनिक एवं भाषाशास्त्री 'गॉर्जिया' की काव्य की परिभाषा में दृष्ट्व्य हैं-''काव्य श्रोताओं को कपा देने वाला भय, अश्रुपूर्ण करुणा तथा दूसरों के दुःख में सहानुभूति उत्पन्न करना हैं.'' आगे चल कर अरस्तु ने इसी अवधारणा को परिष्कृत करके 'विरेचन सिद्धांत' की स्थापना की.
पाश्चात्य काव्यशस्त्र के दर्शनिक, आलोचक व स्थापक इस प्रकार हैं.


1. प्लेटो

पाश्चात्य काव्य चिंतन की परम्परा का विकास 5वीं सदी ईस्वी पूर्व से माना जाता हैं. परन्तु एक व्यवस्थित शास्त्र के रूप में पाश्चात्य साहित्यालोचन की पहली झलक प्लेटो के 'इयोन' नामक संवाद से मिलती हैं. प्लेटो का समय ४२७-३४७ ई. पू. माना जाना हैं. इनका जन्म स्थान एथेंस हैं तथा प्लेटो अफलातून का विकृत रूप हैं जोकि अरबी का शब्द हैं. प्लेटो मूलतः दार्शनिक और शिक्षाशास्त्री थे, वह सुकरात के शिष्य थे. सुकरात एक अविचन बुद्धिवादी और तार्किक था, जो तर्क की कसौटी पर खड़ा नहीं उतरता था, उसे वह स्वीकार नहीं करता था. 

प्लेटो ने अलग से काव्यशास्त्र का कोई ग्रन्थ नहीं लिखा, उनके काव्य-सम्बन्धी विचार इयोन, सिम्पोजियम और रिपब्लिक में मिलते हैं. प्लेटो ने यूनानी शब्द 'मिमेसिस' अर्थात 'अनुकरण' का प्रयोग 'अपकर्षी' अर्थ में किया था. कला की अनुकरण मूलकता की उद्भावना का श्रेय प्लेटो को दिया जाता हैं. प्लेटो आदर्श राज्य में कवि या साहित्यकार के निष्कासन की वकालत करते हैं क्योकि कवि सत्य के अनुकरण का अनुकरण करता हैं, जो सत्य से त्रिधा दूर हैं.

प्लेटो स्वयं एक कवि थे परन्तु सुकरात के संपर्क में आने के बाद उन्होंने अपनी काव्य रचनाये जला दी. प्लेटो ने अपने 'इयोन' नमक संवाद में काव्य-सृजन प्रक्रिया या काव्य-हेतु की चर्चा की हैं. इसमें ईश्वरीय उन्माद को काव्य का हेतु स्वीकार किया हैं.



2. अरस्तु

ग्रीक विचारकों की परंपरा में अरस्तु(३८४-३२२) का महत्व सिर्फ प्लेटो की धारणाओं की व्याख्या करने के नाते नहीं, बल्कि प्लेटो की अनेक असंगतियों को छोड़ते हुए वस्तुगत आधार पर एक सुसंगत दार्शनिक चिंतन-पद्धति विकसित करने के नाते है. यूनानी भाषा में अरस्तु का वास्तविक नाम है, अरिस्तोतेलेस. उनका जन्म ई. पूर्व ३८४ में स्तागिरा नगर में हुआ था.
साहित्य से संबद्ध विषयो पर उन्होंने दो ग्रंथो की रचना की:
१. तेखनेस रितोरिकेस (भाषा शास्त्र)
२. परिपोइतिकेस (काव्य-शास्त्र)
'परिपोइतिकेस' छब्बीस आसान अध्यायों में विभाजित लगभग पचास पृष्ठों की छोटी सी किताब है. अरस्तु की काव्य विषयक मान्यताएं मुख्या रूप से 'काव्यशास्त्र' में म्मिलती है. उन्होंने काव्य की रचना, संरचना और प्रभाव- तीनो पक्षों पर विचार किया है, किन्तु जितना विचार उन्होंने 'त्रासदी की संरचना' पर किया, उतना अन्य किसी विषय पर नहीं. काव्यशास्त्र के आरम्भ में ही अरस्तु ने स्पष्ट किया कि अन्य कलाओ की भांति काव्य भी एक अनुकरणधर्मी कला है: ''चित्रकार अथवा किसी भी अन्य कलाकार की ही तरह कवी भी अनुकर्ता है.'' काव्य रचना के विभिन्न रूप-त्रासदी,महाकाव्य, कामदी आदि भी अनुकरण के ही प्रकार है.
अरस्तु के तीन सिद्धांत प्रचलित है:
अनुकरण सिद्धांत

त्रासदी सिद्धांत
विरेचन सिद्धांत

अरस्तु प्रथम काव्यशास्त्री थे जिन्होंने उपयोगी कला और ललित कला का भेद स्पष्ट किया और ललित कला की स्वायत्ता घोषित की.


3. होरेस

सुप्रसिद्ध लैटिन व्यंगकार, प्रतिक्कार एवं आलोचक होरेस(६५ ई. पू.-८ ई.पू.) ने अपनी प्रतिभा के आधार पर विश्व के महान साहित्यकारों की श्रेणी में अपने को प्रतिष्ठित किया है. उन पर यूनानी काव्य, संस्कृति और दर्शन का पर्याप्त प्रभाव था. होरेस की रचनाओं में --व्यंग्यलेख,प्रगीत एवं आर्स पोएतिक प्रमुख है. 'आर्स पोएतिक' में होरेस ने काव्य-प्रकृति, काव्य-प्रयोजन, विषय-वास्तु, काव्य-रूप तथा काव्य-भाषा पर विचार किया है. होरेस ने काव्य के औचित्य पर विशेष बल दिया. काव्य के सम्बन्ध में रचना के प्रभाव तक जो भी उचित हो, उनको ग्रहण क्र लेना और जो उनुचित हो, उसे त्याग देना ही 'औचित्यवाद' है.
होरेस ने काव्य और नाटक दोनों पर विचार किया है इनके अनुसार काव्य 
बाहरी दवाब में भी लिखा जाता है और आंतरिक प्रेरणा से भी. होरेस के अनुसार, बहरी दबाव- प्रलोभन, भय, आग्रह, प्रशंसा आदि रूपों में सामने आता है, इनसे ऊपर उठाकर ही श्रेष्ठ काव्य-रचना की जा सकती है.
होरेस समीक्षा के क्षेत्र में आभिजात्यवादी है और साहित्य तथा जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण मुख्यतया उपयोगितावादी है. उन्होंने साहित्य के विभिन्न रूपों के सृजन के सम्बन्ध में सामान्य नियमो का निर्धारण किया और औचित्य सिद्धांत की स्थापना की है. 



4. लोंजाइनस

लोंजाइनस का नाम काव्यशास्त्र के इतिहास में प्लेटो और अरस्तु के अनन्तर महत्वपूर्ण है. इनका समय ईसा की प्रथम या तृतीय शताब्दी मानी जाती है. इनके ग्रन्थ 'पेरिइप्सुस' को अरस्तु के 'काव्यशास्त्र' के सामान ही पाश्चात्य साहित्यशास्त्र का मूल आधार स्वीकार किया जाता है. उन्होंने काव्य या कला के प्रमुख तत्व के रूप में औदात्य को मान्यता दी है. 'पेरिइप्सुस' का अर्थ है- औदात्य, ऊंचा, इसका अंग्रेजी में 'on the sublime' नाम से अनुवाद हुआ है. पेरिइप्सुस मूलतः भाषणशास्त्र का ग्रन्थ है.
लोंजाइनस से पूर्व कवि का मुख्या कर्म पाठक-श्रोता को आनंद तथा शिक्षा 
प्रदान करना, गद्य लेखक या वक्ता का मुख्य कर्म अपनी बात मनवाना समझा जाता था. लोंजाइनस को इससे संतोष नहीं हुआ. लोंजाइनस काव्य के लिए भावोत्कर्ष को मूल तत्व, अति आवश्यक तत्व मानते थे.



 5. जॉन ड्राइडन

जॉन ड्राइडन को आधुनिक अंग्रेजी आलोचना का जनक माना जाता है. उनका समय लगभग सन १६१०-१७०० ई. तक माना जाता है. उनके महत्व का आधार उनकी आलोचना दृष्टि है, जिसके दो विशिष्ट गुण है-- तुलनात्मक तथा ऐतिहासिक. जॉन ड्राइडन कवि, आलोचक एवं नाटककार थे. इनकी प्रमुख कृति 'ऑफ ड्रमेटि पोइजी' और 'एस्से आन ड्रमेटिक पोइट्री' है. आलोचना के सम्बन्ध में विभिन्न समस्याओं पर चिंतन करते हुए इन्होने ह्रदय और बुद्धि को समान महत्त्व दिया है. इनके आलोचना संबधी दृष्टिकोण के कारण इन्हें 'आधुनिक आंग्ल आलोचना का जनक' कहा गया है.


6. विलियम वर्ड्सवर्थ

विलियम वर्ड्सवर्थ का जन्मकाल इंग्लैंड में १७७०-१८५० है. वर्ड्सवर्थ का प्रथम काव्य संग्रह 'एन इवनिंग वॉक एण्ड डिस्क्रिप्टिव स्केचेज' सन १७९३ ई. में प्रकाशित हुआ. वर्ड्सवर्थ मूलतः कवि थे. समालोचना की न तो उनको रूचि थी, न प्रवृति. प्राकृतिक परिवेश में पलने के कारण विकसित भी उनका सौंदर्यबोध ही हुआ था. वर्ड्सवर्थ स्वच्छंदतावादी काव्य-युग के प्रवर्तक कवि थे. उनके अनुसार-''काव्य प्रबल भावों का सहज उच्छलन है.''
वर्ड्सवर्थ १७९५ ई. में कालरिज के मित्र बने तथा उनके ही सहलेखन में 'लिरिकल बैलेडस' नमक कविताओं का प्रथम काव्य संस्करण प्रकाशित कराया. लिरिकल बैलेडस को स्वच्छंदतावादी काव्यान्दोलन का घोषणा-पत्र माना जाता है.



7. कॉलरिज

सैमुअल टेलर कॉलरिज का समय १७७२-१८३४ ई. है. स्वच्छंदतावादी कवि, दार्शनिक एवं आलोचक तथा सहजात प्रतिभा के धनी कॉलरिज का पाश्चात्य काव्यशास्त्र में मूर्धन्य स्थान है. वे अंग्रेजी के श्रेष्ट आलोचक है और उनका स्थान अरस्तु तथा लोंजाइनस के समकक्ष है. कॉलरिज की कृति 'बॉयग्राफिया लिट्रेरिया' को अंग्रेजी समीक्षा का श्रेष्ठ ग्रन्थ माना जाता है. कॉलरिज के अनुसार ''कविता रचना का वह प्रकार है जो वैज्ञानिक कृतियों से इन अर्थो में भिन्न है की उसका तात्कालिक प्रयोजन आनंद है, सत्य नहीं; और रचना के अन्य सभी प्रकार से उसका अंतर यहाँ है की सम्पूर्ण से वही आनंद प्राप्त होना चाहिए जो उसके प्रत्येक अवयव से प्राप्त होने वाली स्पष्ट संतुष्टि के अनुरूप है.'' वस्तुतः कॉलरिज एक उच्च कोटि के कवि और गंभीर चिंतक थे. उनकी आलोचना उनके कवि-व्यक्तित्व और चिंतक-व्यक्तित्व के समन्वित प्रयास की परिणीति है.



8. मैथ्यू आर्नल्ड

आधुनिक अंग्रेजी आलोचना का प्रारम्भ मैथ्यू आर्नल्ड से माना जाता है. इनका समय १८२२ से १८८८ तक का रहा है. मैथ्यू आर्नल्ड स्वाभाव और कर्म दोनों से पहले आलोचक और बाद में कवि है. 'साहित्य जीवन की आलोचना है' यह मैथ्यू आर्नल्ड का सिद्धांत है. आर्नल्ड का मत है कि साहित्य और उसकी समस्या जीवन कि समस्याओं से अविच्छिन्न है. आर्नल्ड ने प्रत्येक क्षेत्र में पूर्णता को प्रतिष्ठित करने का प्यास किया है. उनके अनुसार- सस्कृति पूर्णता का ही दूसरा नाम है और काव्य, सस्कृति का अन्यतम साधन है.


9. क्रोचे

बेनदेत्तो क्रोचे, इटली के प्रसिद्ध दार्शनिक थे. इनका समय १८६६ से १९५२ तक था. इन्होने आत्मवादी दर्शन के आधार पर सौंदर्य सिद्धांत कि व्याख्या कि जो 'अभिव्यंजनावाद' नाम से प्रसिद्ध है. अभिव्यंजनावाद का मूल श्रोत वस्तुतः 'स्वच्छंदतावाद' कि उस प्रवृत्ति में है, जो परम्परा रूढ़ि, नियम आदि का विरोध करती है. क्रोचे के वाया सम्बन्धी विचार प्रसिद्ध दार्शनिक 'हीगेल' से प्रभावित है, परन्तु इन्होने कही भी उसका अंधानुकरण नहीं किया है. इनकी प्रमुख रचना है 'एस्थेटिक' क्रोचे के अनुसार कला का कोई उद्देश्य या प्रयोजन नहीं होता, ''कला,कला के लिए होती है.'' उनके अनुसार कला स्वयं साध्य है.



10. इलियट

टॉमस स्टर्न्स इलियट काव्य के स्रष्टा और आलोचक दोनों ही रूपों में आधुनिक अंग्रेजी साहित्य में विख्यात है. इनका समय १८८८ से १९६५ का रहा है, प्रतिभा और प्रभाव दोनों ही दृष्टियों से कॉलरिज के बाद इलियट का स्थान है. इलियट ने आलोचना के न तो सिद्धांत बनाये है, न नियम. उन्हें आलोचना के किसी व्यक्ति, वाद या सम्प्रदाय से भी जोड़कर देखना संभव नहीं है. वे स्वंत्र आलोचक है और उनके वैयक्तिक मानदंड है. 'ट्रेडिशनल एंड दि इंडिविजुअल टेलेंट' नामक लेख इलियट कि समस्त आलोचना का आधार है.
रोमांटिक कवियों ने कविता को सहज अंत: स्फूर्त सृष्टि स्वीकार किया. इलियट इस सिद्धांत के विरोधी के रूप में विशेष विख्यात हुए. 'परम्परा और व्यक्ति-प्रज्ञा' शीर्षक निबंध में उन्होंने इस रोमांटिक सिद्धांत का विरोध करते हुए घोषणा कि: ''कविता कवि-व्यक्तित्व कि अभिव्यक्ति नहीं,व्यक्तित्व से पलायन है.''



 11. आई. ए. रिचर्ड्स 
इनका समय १८९३ से १९७९ तक का है. रिचर्ड्स आधुनिक युग में गौरवपूर्ण स्थान रखते है. इनकी पहली रचना 'द फउंडेशन ऑफ़ एस्थेटिक्स' तथा अंतिम रचना 'बियोंड' है. इनकी प्रमुख चिंता थी कविता कि उपयोगिता और सार्थकता कि चिंता. रिचर्ड्स ने सौन्दर्य को वस्तुतः न मानकर पाठक या दर्शक पर पड़ने वाले प्रभाव के रूप को देखने का आग्रह किया. रिचर्ड्स ने इस बात पर विशेष महत्त्व दिया कि सौन्दर्य, कला और जीवन का निकटम सम्बन्ध है.


सन्दर्भ सामग्री:
 

१. पाश्चात्य काव्यशास्त्र:- देवेन्द्रनाथ शर्मा
२. पाश्चात्य साहित्य-चिंतन:- निर्मला जैन, कुसुम बांठिया
३. आलोचक और आलोचना:- बच्चन सिंह
४. पश्चिम का काव्य विचार:- अजय तिवारी
५. काव्यशास्त्र-निरूपण:- डॉ. विजयकुमार

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