होरेस, रोमन सभ्यता और संस्कृति के स्वर्ण युग के साहित्याकाश में चमकते सितारे हैं। समीक्षक के रूप में उनका उद्देश्य लैटिन साहित्य को यूनानी कवियों और समीक्षकों द्वारा स्थापित नियमों और सिद्धांतों के आधार पर ही अग्रसर करना था। रोमन साहित्य में होरेस का वही स्थान है जो ग्रीक साहित्य में अरस्तु का है।
होरेस के साहित्यिक व्यक्तित्व का उदय प्रगीतकार और व्यंग्यकार के रूप में हुआ है। काव्य के क्षेत्र में उनका योगदान है- संबोध-गीत, व्यंग्य-निबंध और काव्य-पत्र। होरेस की 'आर्स-पोएटिक' काव्य-पत्र के रुप में ही लिखित है। यह रोमन काव्यशास्त्र का सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसमें होरेस ने काव्य-प्रकृति, काव्य-प्रयोजन, विषय-वस्तु, काव्य-रूप तथा काव्य-भाषा पर विचार किया है।
''काव्यकला(आर्स-पोएटिक) का साहित्यिक रूप काव्य-पत्र है। पत्र-रूप में लिखित होने के कारण उसमे विषय को सहज ही कह देने की रूचि परिलक्षित होती है।'' [काव्यकला, भूमिका, पृ.६]
होरेस के साहित्यिक व्यक्तित्व का उदय प्रगीतकार और व्यंग्यकार के रूप में हुआ है। काव्य के क्षेत्र में उनका योगदान है- संबोध-गीत, व्यंग्य-निबंध और काव्य-पत्र। होरेस की 'आर्स-पोएटिक' काव्य-पत्र के रुप में ही लिखित है। यह रोमन काव्यशास्त्र का सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसमें होरेस ने काव्य-प्रकृति, काव्य-प्रयोजन, विषय-वस्तु, काव्य-रूप तथा काव्य-भाषा पर विचार किया है।
''काव्यकला(आर्स-पोएटिक) का साहित्यिक रूप काव्य-पत्र है। पत्र-रूप में लिखित होने के कारण उसमे विषय को सहज ही कह देने की रूचि परिलक्षित होती है।'' [काव्यकला, भूमिका, पृ.६]
होरेस की आलोचना के मूल में साहित्यिक रूपों पर विशेष आग्रह है। काव्य के रूप भेदों पर यह आग्रह साहित्य के औचित्य सिद्धांत से सम्बद्ध है। यूनानी और इतालवी दोनों काव्यों में औचित्य का महत्व सर्वमान्य है। होरेस का मानना है की एक विषय के लिए एक ही विधा का प्रयोग किया जाना चाहिए। जैसे- यदि कोई विषय महाकाव्य के अनुकूल है तो उसे महाकाव्य द्वारा ही प्रस्तुत किया जाता है क्योकि ट्रेजडी आदि अन्य काव्य विधाओं में प्रस्तुत किए जाने पर उसका रूप विकृत एवं प्रभावहीन हो जायेगा। इसी औचित्य के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए होरेस ने कहा है- ''यदि कोई चित्रकार घोड़े की ग्रीवा पर मनुष्य के सर का प्रत्यांकन करने का पर्यटन करे और फिर भाँति-भाँति के पशुओं के अव्ययों का संयोग करके उन पर रंग-बिरंगे पंख चित्रित कर दे, जिसके फलस्वरूप ऊपरी भाग तो सुन्दर नारी के आकर में हो परन्तु अधो भाग में कुरूप मत्स्य की आकृति हो और तुम्हें एकांत में यह चित्र देखने का अवसर मिले तो बताओ मित्र! क्या तुम अपनी हसी का संवरण कर सकोगे?''
इस काव्य रूप औचित्य से स्पष्ट है कि होरेस औचित्य के प्रबल पक्षपाती थे। वस्तुतः होरेस का औचित्य सिद्धांत काव्य के प्रत्येक अंग और उपांग से सम्बद्ध है।विषय वस्तु, छंद विधान, शैली, चरित्र, अभिनेयता आदि सब उसके विस्तार में आ जाते हैं। इसका संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है:-
इस काव्य रूप औचित्य से स्पष्ट है कि होरेस औचित्य के प्रबल पक्षपाती थे। वस्तुतः होरेस का औचित्य सिद्धांत काव्य के प्रत्येक अंग और उपांग से सम्बद्ध है।विषय वस्तु, छंद विधान, शैली, चरित्र, अभिनेयता आदि सब उसके विस्तार में आ जाते हैं। इसका संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है:-
क) विषय-औचित्य:- होरेस का मत है कि कवि को अपनी कविता या नाटक के लिए परंपरागत कथाओं का प्रयोग करके उनमे नविन उद्भावना करनी चाहिए और ऐसा विषय चुनना चाहिए जो उसके सामर्थ्य के भीतर हो अन्यथा वह विषय का औचित्यपूर्ण निर्वाह न कर सकने के कारण अपने कार्य में सफलता प्राप्त नहीं कर सकेगा।
''ऐसा विषय चुनो जो तुम्हारी सामर्थ्य के भीतर हो, अच्छी तरह सोचो-विचारो कि तुम्हारे कंधे कितना बोझ उठा सकता हैं, कितना नहीं।''
होरेस का विश्वास है कि जो लेखक ठीक विषय का चयन कर लेता है उसे शब्द और उनके स्वच्छ विन्यास में भी कठिनाई नहीं होती।
ख) चरित्र-औचित्य:- चरित्र-चित्रण में भी रचनाकार को औचित्य का निर्वाह करना चाहिए। होरेस का मत है कि पुराने परंपरागत चरित्रों का चित्रण करते हुए उसे उनके परंपरागत स्वरुप कि रक्षा करनी चाहिए। इसका अर्थ यह है कि नूतन चरित्र बुद्धिगम्य और कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया जाए जिससे वह आरम्भ से अंत तक अपनी प्रकृति के अनुरूप ही बना रहे। होरेस ने अवस्थागत औचित्य का निर्वाह करने कि दृष्टि से स्पष्ट किया है कि विभिन्न पत्रों के गन उनकी अवस्थाओं के अनुकूल होने चाहिए।
ग) घटना-औचित्य:- होरेस ने घटनाओं के औचित्य के प्रसंग में उन घटनाओं का उल्लेख किया है जो वर्ज्य है अर्थात जिनका अभिनय रंगमंच पर नहीं हो सकता। यह बात सही है कि आँखों से प्रत्यक्ष देखने पर प्रेक्षकों पर घटना का प्रभाव पड़ता है। उनके सम्मुख स्थिति सजीव और साकार हो उठती है। परन्तु कुछ ऐसी घटनाएँ और स्थिति होती है जिनका रंगमंच पर अभिनय न तो वांछित है और न वे प्रभावकारी होती हैं। उलटे ये प्रेक्षकों को जुगुप्सा, अविश्वास और भयप्रद भावों से उद्वेलित कर सकते हैं। होरेस ने ऐसी घटनों का रंगममंच पर अभिनय निषिद्ध माना है।
घ) अभिनय-औचित्य:- अभिनय-औचित्य से होरेस का तात्पर्य है कि नाटककार को प्रेक्षकों पर जैसा प्रभाव डालना हो, उसी के अनुकूल अभिनेताओं का अभिनय होना चाहिए। अभिनेता का अभिनय और वार्तालाप उसकी स्थिति और मनोदशा कि संगति में होना अनिवार्य है। अतः घटनाओं के साथ-साथ पात्रों के क्रियाकलापों के औचित्य पर ध्यान देना चाहिए।
ड़) शब्द-चयन एवं शब्द-योजना औचित्य:- विषय-वस्तु का औचित्यपूर्ण चयन जितना आवश्यक है, उतना ही उसकी अभिव्यक्ति के लिए औचित्यपूर्ण शब्द चयन और गतिपूर्ण शब्द-योजना। होरेस नवीन शब्दावली के प्रयोग के पक्ष में हैं, किन्तु लेखक को इस अधिकार का प्रयोग उचित सीमा के अंतर्गत ही करना चाहिए। अतः समय एवं प्रचलन के अनुकूल शब्द-प्रयोग करना चाहिए। उसमें सामयिक प्रचलन के अनुकूल नए शब्द भी प्रयोग में लाए जा सकते हैं क्योंकि प्रचलन कि भाषा का शासन और मानदंड है।
च) छंद विधान:- सभी छंद भावों को अभिव्यक्त करने में सफल नहीं होते। जो विषय जिस छंद में उपयुक्त है उसे उसी छंद में प्रस्तुत किया जाना चाहिए क्योंकि अन्य छंद में प्रस्तुत किये जाने पर अभिव्यक्ति के सौन्दर्य की हानि होगी। इस आधार पर महाकाव्य के लिए षट्पदी, ट्रेजडी, कामदी एवं व्यंग्य लेख के लिए लघु-गुरु द्विमात्रिक छंद, दुखपूर्ण विषय के लिए करुणा गीत विजय स्तवन के लिए सम्बोधन गीत, प्रेमोच्छवास की अभिव्यक्ति के लिए प्रगीत उपयुक्त है।
छ) शैली औचित्य:- शैली भी विषय के अनुकूल होनी चाहिए। उसमें प्रसंगानुकूल एवं विषयानुकूल प्रसाद, ओज और माधुर्य गुण होने चाहिए। नाटकीय संवाद जीवन की वास्तविकता से मेल कहते होए होने चाहिए। होरेस का मत है कि ''संक्षिप्तता के कारण अस्पष्ट न हो जाओ, स्पष्टता के प्रयास में अशक्त न हो जाओ, सादगी के गौरव कि प्राप्ति के लिए नीरस न बन जाओ एवं बहुलता के उद्देश्य की प्राप्ति के कारण अमर्यादित न हो जाओ। सदा अपनी अभिव्यक्ति से सच्चे और ईमानदार रहो।''
''ऐसा विषय चुनो जो तुम्हारी सामर्थ्य के भीतर हो, अच्छी तरह सोचो-विचारो कि तुम्हारे कंधे कितना बोझ उठा सकता हैं, कितना नहीं।''
होरेस का विश्वास है कि जो लेखक ठीक विषय का चयन कर लेता है उसे शब्द और उनके स्वच्छ विन्यास में भी कठिनाई नहीं होती।
ख) चरित्र-औचित्य:- चरित्र-चित्रण में भी रचनाकार को औचित्य का निर्वाह करना चाहिए। होरेस का मत है कि पुराने परंपरागत चरित्रों का चित्रण करते हुए उसे उनके परंपरागत स्वरुप कि रक्षा करनी चाहिए। इसका अर्थ यह है कि नूतन चरित्र बुद्धिगम्य और कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया जाए जिससे वह आरम्भ से अंत तक अपनी प्रकृति के अनुरूप ही बना रहे। होरेस ने अवस्थागत औचित्य का निर्वाह करने कि दृष्टि से स्पष्ट किया है कि विभिन्न पत्रों के गन उनकी अवस्थाओं के अनुकूल होने चाहिए।
ग) घटना-औचित्य:- होरेस ने घटनाओं के औचित्य के प्रसंग में उन घटनाओं का उल्लेख किया है जो वर्ज्य है अर्थात जिनका अभिनय रंगमंच पर नहीं हो सकता। यह बात सही है कि आँखों से प्रत्यक्ष देखने पर प्रेक्षकों पर घटना का प्रभाव पड़ता है। उनके सम्मुख स्थिति सजीव और साकार हो उठती है। परन्तु कुछ ऐसी घटनाएँ और स्थिति होती है जिनका रंगमंच पर अभिनय न तो वांछित है और न वे प्रभावकारी होती हैं। उलटे ये प्रेक्षकों को जुगुप्सा, अविश्वास और भयप्रद भावों से उद्वेलित कर सकते हैं। होरेस ने ऐसी घटनों का रंगममंच पर अभिनय निषिद्ध माना है।
घ) अभिनय-औचित्य:- अभिनय-औचित्य से होरेस का तात्पर्य है कि नाटककार को प्रेक्षकों पर जैसा प्रभाव डालना हो, उसी के अनुकूल अभिनेताओं का अभिनय होना चाहिए। अभिनेता का अभिनय और वार्तालाप उसकी स्थिति और मनोदशा कि संगति में होना अनिवार्य है। अतः घटनाओं के साथ-साथ पात्रों के क्रियाकलापों के औचित्य पर ध्यान देना चाहिए।
ड़) शब्द-चयन एवं शब्द-योजना औचित्य:- विषय-वस्तु का औचित्यपूर्ण चयन जितना आवश्यक है, उतना ही उसकी अभिव्यक्ति के लिए औचित्यपूर्ण शब्द चयन और गतिपूर्ण शब्द-योजना। होरेस नवीन शब्दावली के प्रयोग के पक्ष में हैं, किन्तु लेखक को इस अधिकार का प्रयोग उचित सीमा के अंतर्गत ही करना चाहिए। अतः समय एवं प्रचलन के अनुकूल शब्द-प्रयोग करना चाहिए। उसमें सामयिक प्रचलन के अनुकूल नए शब्द भी प्रयोग में लाए जा सकते हैं क्योंकि प्रचलन कि भाषा का शासन और मानदंड है।
च) छंद विधान:- सभी छंद भावों को अभिव्यक्त करने में सफल नहीं होते। जो विषय जिस छंद में उपयुक्त है उसे उसी छंद में प्रस्तुत किया जाना चाहिए क्योंकि अन्य छंद में प्रस्तुत किये जाने पर अभिव्यक्ति के सौन्दर्य की हानि होगी। इस आधार पर महाकाव्य के लिए षट्पदी, ट्रेजडी, कामदी एवं व्यंग्य लेख के लिए लघु-गुरु द्विमात्रिक छंद, दुखपूर्ण विषय के लिए करुणा गीत विजय स्तवन के लिए सम्बोधन गीत, प्रेमोच्छवास की अभिव्यक्ति के लिए प्रगीत उपयुक्त है।
छ) शैली औचित्य:- शैली भी विषय के अनुकूल होनी चाहिए। उसमें प्रसंगानुकूल एवं विषयानुकूल प्रसाद, ओज और माधुर्य गुण होने चाहिए। नाटकीय संवाद जीवन की वास्तविकता से मेल कहते होए होने चाहिए। होरेस का मत है कि ''संक्षिप्तता के कारण अस्पष्ट न हो जाओ, स्पष्टता के प्रयास में अशक्त न हो जाओ, सादगी के गौरव कि प्राप्ति के लिए नीरस न बन जाओ एवं बहुलता के उद्देश्य की प्राप्ति के कारण अमर्यादित न हो जाओ। सदा अपनी अभिव्यक्ति से सच्चे और ईमानदार रहो।''
होरेस के औचित्य सिद्धांत पर मुख्य रूप से दो आरोप लगाए जाते हैं। पहल यह की उसका औचित्य चिंतन मौलिक एवं स्वतंत्र नहीं है क्योंकि वह प्राचीन ग्रीक साहित्य से अत्यंत प्रभावित और अपने समय के रोमन साहित्य के सुधार की आकांशा से प्रभावित था तथा उसने प्रकृति से प्रेरणा ग्रहण नहीं की थी। वस्तुतः यह आरोप न्याय संगत नहीं है क्योकि ग्रीक प्रभाव के होते हुए भी होरेस की समीक्षा में दोनों दृष्टिकोणों के ऊपर उठकर एक निर्भ्रांत विवेक समीक्षक और सहृदय का मूल्यांकन है। जैसे होरेस कृति को प्रकाशित करने से पूर्व रचना पर प्रौढ़ समीक्षक की स्वीकृति पर बल देता है।
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