Sunday, 21 January 2018

अरस्तु का त्रासदी सिद्धांत


अरस्तु की काव्य विषयक मान्यताएँ मुख्य रूप से 'काव्यशास्त्र' में मिलती है. उन्होंने काव्य की रचना, संरचना और प्रभाव-तीनो पक्षों पर विचार किया है, किन्तु जितना विचार उन्होंने त्रासदी की संरचना पर किया, उतना किसी अन्य विषय पर नहीं. पश्चिम में त्रासदी का सर्वप्रथम विवेचन यूनान में हुआ. क्योंकि वहीं उनका सर्वप्रथम सर्वांगीण विकास हुआ. 



अरस्तु से पूर्व प्लेटो ने भी त्रासदी पर अपने विचार प्रकट किये है, परन्तु फिर भी अरस्तु ने ही सबसे पहले त्रासदी का गंभीर विवेचन किया. प्लेटो ने काव्य का वर्गीकरण करते हुए त्रासदी और कामदी दोनों के सम्बन्ध में अपना मंतव्य प्रस्तुत किया है. इसके अनुसार त्रासदी महाकाव्य से निम्नकोटि का माना जाना चाहिए. परन्तु अरस्तु के विचार इस सम्बन्ध में कुछ भिन्न होने के कारण उन्होंने अपने गुरु प्लेटो के त्रासदी विवेचन का खंडन कर अपने त्रासदी सिद्धांत की स्थापना की.
अरस्तु ने त्रासदी की परिभाषा देते हुए कहा है की- ''त्रासदी किसी गंभीर स्वतः पूर्ण तथा निश्चित आयाम से युक्त कार्य की अनुकृति का नाम है, जिसका माध्यम नाटक के भिन्न-भिन्न भागों में भिन्न-भिन्न रूप में प्रयुक्त सभी प्रकार के आभरणों से अलंकृत भाषा होती है, जो समाख्यान रूप में न होकर कार्य-व्यापार रूप में होती है और जिसमे करुणा तथा त्रास के उद्रेक द्वारा इन मनोविकारों का उचित विरेचन किया जाता है।''
डॉ. नगेन्द्र के मत में- ''त्रासदी की इस परिभाषा के अनुसार कहा जा सकता है कि त्रासदी दृश्य-काव्य का एक भेद है। इसकी कथावस्तु गंभीर होती है। इसका एक निश्चित आयाम होता है और यह अपने आप में पूर्ण होती है, अर्थात इसमें जीवन के गंभीर पक्ष का चित्रण होता है। त्रासदी के मूल भाव करुणा और त्रास होते हैं। इन भावों को उदबुद्ध पर विरेचन पद्धति से मानव-मन का परिष्कार त्रासदी का मुख्य उद्देश्य हैं। त्रासदी की शैली भावपूर्ण और अलंकृत होती हैं।''

अरस्तु ने त्रासदी के अंगों का विवेचन संरचनात्मक-विश्लेषणात्मक पद्धति से किया है। उन्होंने त्रासदी के ६ः अनिवार्य अंग स्वीकार किये है:-

१) कथानक(plot)
२) चित्रण(charcter)
३) पदावली(diction)
४) विचार(thought)
५) दृश्य-विधान(visual principles)
७) गीत(song)
इनमे से कथानक,चरित्र और विचार अनुकरण के विषय है, दृश्य-विधान अनुकरण की पद्धति है और पदावली और गीत अनुकरण के मथ्यम है।

१) कथानक- इन ६ः तत्वों में सबसे अधिक महत्त्व अरस्तु ने कथानक को दिया। वे कथावस्तु को प्रबंध काव्यमात्र का और विशेष रूप से त्रासदी का सबसे महत्वपूर्ण अंग, त्रासदी की आत्मा मानते है। कथानक को अरस्तु सर्वोपरि महत्त्व देते थे इसका प्रमाण यह है कि उन्होंने जितने विस्तार से कथानक के विविध पक्षों पर विचार किया है, उतना किसी और तत्व पर नहीं। उन्होंने कथानक पर आधार, विस्तार, संरचना, भेद, वस्तुविधान सभी दृष्टियों से विचार किया है।

त्रासदी के कथानक के अरस्तु ने तीन मुख्य स्रोत स्वीकार किये हैं- दंतकथाएं, कल्पना और इतिहास दंतकथा मूलक साहित्य को वे सर्वोत्तम मानते थे। क्यूँकि उसमे विद्यमान के साथ अविद्यमान के समन्वय का अवकाश होता है-सत्य के साथ कल्पना का। सत्यांश अपनी विश्वसनीयता के कारण महत्वपूर्ण होता है और कल्पना अपनी अपनी संभाव्यता के कारण। शेष दो आधारों को वे अग्राह्य नहीं मानते थे किन्तु उतना समृद्ध नहीं जितना दन्तकथामूलक साहित्य को।
कथावस्तु के मूल गुण- अरस्तु के अनुसार त्रासदी की कथावस्तु के ६ः गुण हैं:- एकान्विति, पूर्णता, सम्भाव्यता, सहज विकास, कुतूहल और साधारणीकरण।
एकान्विति- कथावस्तु की संरचनागत विशेषतओं में अरस्तु ने एकान्विति पर विशेष बल दिया है। एकान्विति से उनका तात्पर्य था कार्य-व्यापार में एकता, अर्थात कथानक में विविध प्रसंगों की अनिवार्यता। इसमें ऐसी घटनाएँ होनी चाहिए जिनमे परस्पर आवश्यक और सम्भाव्य संबन्ध हो तथा एक कार्य व्यापर उसका केंद्र बिंदु हो।
पूर्णता- पूर्ण कथानक से उनका तात्पर्य था- समूची क्रम योजना के अनुरूप आदि,मध्य और अवसान से युक्त कार्य-व्यापार। उनका तात्पर्य कथानक के विभिन्न प्रसंगों में अपेक्षित कार्य-कारण सम्बन्ध से था। इस प्रकार पूर्णता का अभिप्राय है- जिज्ञासा की क्रमिक पूर्ति की अनिवार्य व्यवस्था।
सम्भाव्यता- इसका अभिप्राय यह है की जो घटित हो चुका है, वही पर्याप्त नहीं है। अपितु जो घटित हो सकता है वही भी काम्य है। इसमें असम्भाव्य घटनाएँ नहीं होनी चाहिए, क्यूँकि उन्हें मानव मन ग्रहण नहीं कर सकता है।
सहज विकास- सहज विकास से उनका अभिप्राय विभिन्न घटनाओं में सहज कार्य-कारण सम्बन्ध से था। साथ ही वह यह भी आवश्यक मानते थे कि नाटक के विभिन्न अंग, संवृत्ति, स्थिति-विपर्यय और अभिज्ञान आदि कथानक से सहज ही उदभूत हो।
कुतूहल- कथानक कुतूहल पैदा करे, इसके लिए आवश्यक है कि घटनाएं प्रेक्षक के सामने अचानक ही उपस्थित हो। पर यह आकस्मिकता संजोगजन्य ही नहीं होनी चाहिए। घटनाओं में आकस्मिकता में पूर्वापरता रहनी चाहिए, तभी श्रोता अपनी जिज्ञासा का समाधान कर पाता है।
साधारणीकरण- कवि व नाटककार घटना-विन्यास से पूर्व अपने कथानक कि सार्वभौम रुपरेखा बनाए, जिसके साथ सभी तादात्मय कर सके। प्रबंध-विधान को अरस्तु त्रासदी कि रीढ़ मानते थे। उनका मत था कि घटनाओं का विन्यास करने से पूर्व रचनाकार के मन में कथानक कि रुपरेखा स्पष्ट होनी चाहिए। ऐसी रुपरेखा जो देश काल के बंधनों से मुख्त अतः सर्वग्राह्य हो।

अरस्तु के अनुसार कथानक दो प्रकार के होते है- सरल और जटिल। उनकी प्रकृति का निर्णय कार्य के आधार पर होता है। सरल कार्य वाले कथानक सरल और जटिल कार्य वाले कथानक जटिल होते है क्यूँकि ''उनके अनुकार्य वास्तविक जीवन के व्यापारों में भी स्पष्टतः यही भेद होता है।''
सरल कथानक वह है जिसका कार्य-व्यापर इकहरा और अविच्छिन्न हो, अर्थात जिसमे स्थिति-विपर्यय और अभिज्ञान के बिना ही भाग्य परिवर्तन हो जाता है। जबकि जटिल कथानक का आधार जटिल व्यापार होता है। 'जटिल व्यापार वह है जहाँ भाग्य-परिवर्तन स्थिति-विपर्यय या अभिज्ञान अथवा दोनों के द्वारा घटित होता है।' जटिल कथानक कि प्रकृति इकहरी और गति सरल सपाट नहीं होती। विविध सन्दर्भों और आकस्मिक प्रसंग-योजनाओं से युक्त उसका घटना विधान अनेक जोड़ो और मोड़ो से गुजरता हुआ चरम परिणीति को प्राप्त होता है।

२) चरित्र-चित्रण- महत्त्व क्रम में अरस्तु कथानक के बाद दूसरा स्थान चरित्र-चित्रण को देते है। चरित्र-चित्रण का मूल आधार उन्होंने पात्रों के चरित्र को स्वीकार किया है। अरस्तु ने चरित्र-चित्रण के ६ः आधारभूत सिद्धांत स्वीकार किये हैं। रचना के चरित्र-चित्रण के लिए इस ६ः बातों का ध्यान रखना रचनाकार के लिए आवश्यक हैं: भद्रता, औचित्य, जीवन के अनुकूल एकरूपता, सम्भाव्यता, सच्चाई और आदर्श
पहली और सबसे महत्वपूर्ण बात उनके अनुसार यह है कि चरित्र भद्रा हो। यदि उद्देश्य भद्र है तो चरित्र भी भद्र होगा। चरित्र कि व्यंजना किसी भी वक्तव्य या कार्य-व्यापार से हो सकती है। अरस्तु स्त्री को कुछ निम्न स्तर का और दास को तो बिलकुल ही निकृष्ट जीव मानते थे। परन्तु इस सम्भावना से इंकार नहीं करते थे कि भद्रता हर वर्ग के पात्र में संभव है।
अरस्तु ने औचित्य को चरित्र का दूसरा गुण माना है। चरित्र के सन्दर्भ में यह औचित्य स्वभाव और आचरण सम्बन्धी होता है। उनके अनुसार पुरुष में एक प्रकार का शौर्य होता है परन्तु नारी पात्रों में शौर्य या नैतिक-विवेक शुन्य चातुर्य का समावेश उचित नहीं कहा जा सकता। चरित्र कि तीसरी विशेषता वे यथार्थता और जीवन के प्रति सच्चाई स्वीकार करते है। इसी विशेषता कि परिणति स्वाभाविकता और संगति में होती है। अरस्तु के अनुसार चरित्र का विकास इस रूप में होना चाहिए कि उनके अंत तक वही विशेषताएँ बनी रहे जो आरम्भ में दिखाई गई हो। यदि उसमें परिवर्तन दिखाया जाये तो इस परिवर्तन के लिए पर्याप्त कारण होना चाहिए। चरित्र में स्वाभिकता और संगति को वे अनिवार्य मानते थे।
चरित्र चित्रण के लिए अरस्तु ने चित्रकला को आदर्श माना। उन्होंने त्रासदिकार को परामर्श दिया कि जिस प्रकार चित्रकार मूल का प्र्त्यांकन करते हुए भी सामान्य जीवन से अधिक सुन्दर चित्र का निर्माण करता है, उसी प्रकार कवि को चाहिए कि वह चरित्र के गुण दोषों की स्वाभाविकता की रक्षा करते हुए भी, जीवन की तुलना में उन्हें अधिक परिष्कृत रूप में प्रस्तुत करे। कहा जा सकता है कि अरस्तु साहित्य कि रचना सौन्दर्य के नियमों के अधीन स्वीकार करते है।

३) विचार- त्रासदी के तत्वों के महत्व क्रम कि दृष्टि से अरस्तु ने तीसरा स्थान विचार को दिया है। अरस्तु के अनुसार विचार का अर्थ है परिस्थिति के अनुरूप संभव और संगत के प्रतिपादन कि क्षमता। कुछ और खुलासा करते हुए उन्होंने कहा, ''विहकार वह विध्यमान रहता है जहाँ किसी वस्तु का भाव या अभाव सिद्ध किया जाता है, या किसी समान्य सत्य की व्यंजक सूक्ति का आख्यान होता है।''
विचार की आवश्यकता अरस्तु किसी वक्तव्य को सिद्ध करने या सामान्य सत्य का आख्यान करने के लिए स्वीकार करते है। विचार की व्यापकता का अरस्तु ने जिस रूप में निरूपण किया, उससे स्पष्ट है कि वे विचार में केवल बुद्धि तत्व की प्रधानता को स्वीकार नहीं करते थे। उन्होंने स्पष्ट किया: ''विचार के अंतर्गत ऐसा प्रत्येक प्रभाव आ जाता है जो वाणी द्वारा उत्पन्न हो, इसके उपविभाग हैं- प्रमाण और प्रतिवाद, करुणा, त्रास, क्रोध की उद्बुद्धि, अतिमूलन और उन्मूलन।''

४) पदावली- पदावली से अरस्तू का अभिप्राय था शब्दार्थमय अभिव्यक्ति। उन्होंने त्रासदी का माध्यम अलंकृत भाषा को माना। अलंकृत की व्याख्या करते हुए उन्होंने स्पष्ट किया: ''अलंकृत भाषा से मेरा अभिप्राय ऐसी भाषा से है, जिसमे लय, सामंजस्य और गीत का समावेश होता है।'' त्रासदी की भाषा के बारे में अरस्तू ने विस्तार से लिखा, जिसका सार यह था कि त्रासदी कि भाषा प्रसन्न, समृद्ध और उदात्त होनी चाहिए। पदावली में ये गुण अलंकृत, गरिमा और औचित्य के समावेश से और शूद्रता और वागाडंबर के विरुद्ध सतर्कता से आते है। बाद में लोंजाइनस ने भी उद्दात्त का विवेचन करते समय अलंकृति पर बल देते हुए भी शब्दाडम्बर, वागाडंबर और शूद्रता को उदात्त विरोधी तत्व माना था।

५) दृश्य विधान- अरस्तु मानते थे की त्रासदी के प्रबल प्रभाव की अनुभूति दृश्य विधान(रंगमंचीय प्रस्तुति) के बिना भी संभव है। उन्होंने तर्क दिया कि दृश्य विधान कवि कि अपेक्षा मंच शिल्प कि कला पर अधिक निर्भर रहता है और इससे स्वतंत्र रूप से त्रासदी के प्रबल प्रभाव कि अनुभूति होती है, किन्तु त्रासदी के मूल प्रभाव के लिए यह सर्वथा अनिवार्य नहीं है क्यूंकि दृश्य विधान एक बाह्य प्रसाधन है। इस प्रकार त्रासदी का आकर्षण प्रस्तुति सापेक्ष नहीं होता।

६) गीत- अरस्तु ने गीत को भी त्रासदी का अभिन्न अंग मन है, जबकि उसका स्वतंत्र प्रयोग वृंदगान के अंतर्गत होता है।


निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि अरस्तु के काव्य शास्त्र का अधिकांश भाग त्रासदी को समर्पित है और इसी में उनकी प्रतिभा का उत्कर्ष मिलता है। वस्तुतः अरस्तु ने त्रासदी को कला का आदर्श रूप मानकर उसके निमित्त से कला के मूल सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। अरस्तु का मानना था कि त्रासदी मानव-पीड़ा कि गाथा होते हुए भी हमें इसलिए सुख प्रदान करती है कि प्रथम तो वह हमें जीवन सत्यों से परिचित कराकर हमारे ज्ञान भण्डार कि अभिवृद्धि करती है, दूसरा उसे देखते समय साधारणीकरण कि प्रक्रिया द्वारा हम भावंदोलन और भावमग्नता से उत्पन्न सुख का अनुभव करते है और तीसरा वह सुन्दर कला-कृति होती है जिसे कवि अपनी प्रतिभा, कल्प्नातशक्ति तथा कलात्मक-चातुर्य से मनमोहक बना देती है।



सन्दर्भ सामग्री: 

१. पाश्चात्य काव्यशास्त्र:- देवेन्द्रनाथ शर्मा
२. पाश्चात्य साहित्य-चिंतन:- निर्मला जैन, कुसुम बांठिया
३. आलोचक और आलोचना:- बच्चन सिंह
४. पश्चिम का काव्य विचार:- अजय तिवारी
५. काव्यशास्त्र-निरूपण:- डॉ. विजयकुमार


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