लोंजाइनस ने उदात्त के सम्बन्ध में उन तत्वों की भी चर्चा की है जो औदात्य के विरोधी है। इस प्रकार उदात्त के स्वरूप विवेचन के तीन तत्व हो जाते है:-
१) अंतरंग तत्व:- उड़ात विचारों या विषय की गरिमा- उनके अनुसार उस कवि की कृति महान नहीं हो सकती जिसमे महान धारणाओं की क्षमता नहीं है। कवि को महान बनाने के लिए अपनी आत्मा में उदात्त विचारो का पोषण करना चाहिए। उन्होंने दृष्टांत देते हुए स्पष्ट लिखा है, ''यह संभव नहीं की जीवन-भर शूद्र उद्देश्यों और विचारों में ग्रस्त व्यक्ति कोई स्तुत्य एवं अमर रचना कर सके।' 'महान शब्द उन्हीं के मुख से निश्रित होता है जिनके विचार गंभीर और महान हो।''
अरस्तु ने विषय को स्वतः साध्य माना था, लोंजाइनस उसे साधन मानते है। उनके मतानुसार यद्यपि यह कार्य प्रतिभा द्वारा ही सिद्ध होता है, तथापि महान कवियों की कृतियों का अनुशीलन भी सहायक हो सकता है। उनके परायण से जो संस्कार हो सकता है, वे निश्चय ही श्रेष्ठ रचना के परायण में सहायक होता है। लोंजाइनस प्राचीन कवियों का अंधानुकरण नहीं चाहते, वह चाहते है की नए कवि उनसे संस्कार ग्रहण करें।
लोंजाइनस के अनुसार विषय में ज्वालामुखी के समान असाधारण शक्ति और वेग होना चाहिए तथा ईश्वर का सा ऐश्वर्य और वैभव भी। विषय ऐसा होना चाहिए जिससे पाठक-श्रोता पर उत्कट तथा स्थायी प्रभाव पड़े। ''जिससे प्रभावित न होना कठिन ही नहीं लगभग असंभव हो जाये और जिसकी स्मृति इतनी प्रबल और गहरी हो की मिटाये न मिटे।''
२) बहिरंग तत्व:- इसे तीन भागों में बाँट सकते है १) समुचित अलंकार योजना:-अलंकारों का प्रयोग तो लोंजाइनस के युग में निर्वाध होता था पर उसका मनोवैज्ञानिक आधार न था। लोंजाइनस ने उनका सम्बन्ध मोनिविज्ञानिक से जोड़ा और मनोवैज्ञानिक प्रभावों को व्यक्त करने के निमित्त ही अलंकारों को उपयोगी ठहराया। केवल चमत्कार-प्रदर्शन के लिए अलंकारों का प्रयोग उन्हें मान्य ना था। वह अलंकारों को तभी उपयोगी मानते थे जब वह जहाँ प्रयुक्त हुआ है, वहाँ अर्थ को उत्कर्ष प्रदान करे, लेखक के भावावेगों से उत्पन्न हुआ हो, पाठक को आनद प्रदान करे, केवल चमत्कृत न करे। भव्य से भव्य अलंकार भी यदि स्थान, परिस्थिति आदि के अनुरूप नहीं है, तो कविता-कामिनी का श्रृंगार न कर उसका बोझ बन जायेगा। वह अलंकारों को निश्चय ही साध्य नहीं मानते थे और यह उस युग के लिए निश्चय ही क्रांतिकारी विचार था। २) उत्कृष्ट भाषा:- इसके अंतर्गत लोंजाइनस ने शब्द चयन, रूपादि का प्रयोग और भाषा की सज्जा को लिया है। भाषा की गरिमा का मूल आधार है शब्द-सौन्दर्य अर्थात उपयुक्त और प्रभावशाली शब्दों का प्रयोग। 'सुन्दर शब्द ही वास्तव में विचार को विशेष प्रकार का आलोक प्रदान करते हैं।' शब्द विन्यास के दो पक्ष होते हैं- ध्वनि पक्ष और अर्थ पक्ष। लोंजाइनस ने दोनों पक्षों पर समुचित ध्यान दिया है। उन्होंने एक चेतावनी भी दी है की हर जगह गरिमामयी भाषा का प्रयोग उचित नहीं। उनका प्रयोग प्रसंग के अनुरूप ही होना चाहिए। ३) रचना-विधान:- उनके अनुसार रचना-विधान गरिमामयी होना चाहिए। रचना-विधान के अंतर्गत शब्दों, विचारों, कार्यों, सुंदरता तथा राग के अनेक रूप का संगुम्फन होता है। उनकी दृष्टि में रचना का प्राप्त तत्व है सामंजस्य जो उदात्त शैली के लिए अनिवार्य है। उन्होंने शैलीगत रचना-विधान कि तुलना शरीर-रचना से करते हुए दोनों को सामान माना है। जिस प्रकार शरीर के विभिन्न अवयवों के अलग-अलग रहने पर कोई महत्त्व नहीं- सब मिलकर ही वे एक समग्र और सम्पूर्ण शरीर कि रचना करते हैं, इसी प्रकार उदात्त शैली के भी तत्व जब एकान्वित कर दिए जाते हैं, तभी उनके कारण कृति गरिमावान बन जाती है।
३) विरोधी तत्व:- विषय को निर्भ्रांत बनाने के लिए लोंजाइनस ने उन तत्वों को भी स्पष्ट किया है, जो उदात्त के विरोधी है। सर्वप्रथम उन्होंने बालेयता को औदात्य का विरोधी माना है।चंचल, पद-गुम्फन, असंगत वाग्विस्तार, हीन और शूद्र अर्थ वाले शब्दों का प्रयोग-ये सब उदात्त शैली के अपकारक है, अतः त्याज्य है। भवादम्बर और शब्दाडंबर को भी वह विरोधी तत्व मानते है। वे उन चमत्कार-प्रयोगों को भी उदात्त का विरोधी समझते है, जो साध्य है, साधक नहीं, तथा जो विवेकपूर्ण प्रयुक्त नहीं किये गये हैं, जिनसें भावाभियंजना में कोई गरिमा नहीं आता।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सजता हैं की उदात्त के स्रोतों का विवेचन करते हुए लोंजाइनस ने उदात्त को एक ऐसी गुणात्मक सत्ता के रूप में देखा हैं जो खंड रूप में कृति के विभिन्न तत्वों में और अखंड रूप में सम्पूर्ण कृति में त्याज्य रहती है। लोंजाइनस का औदात्य सिद्धांत पाश्चात्य समीक्षा की दें है। उनका 'औदात्य' जीवन के अर्जित पक्ष की अभिव्यक्ति है, मधुर पक्ष के लिए उसमे कोई स्थान नहीं है। अतः जीवन के आधे पक्ष का विवेचन करने के कारण उनका शास्त्र अधूरा है। भारतीय काव्यशास्त्र की पूर्णता उसमे कहाँ, जिसमे ओज के साथ माधुर्य गुण भी है। एक ओर वीर और औदात्य रस है तो दूसरी ओर श्रृंगार और हास्य रस है। वह सम्पूर्ण मानव की कृति है। लोंजाइनस की धारणा में इस एकांगिता का कारण यह है कि उन्होंने अपने ग्रंथ का प्रणयन भाषाशास्त्र के रूप में किया था, काव्यशास्त्र के रूप में नहीं। इसलिए सफल भाषा के लिए महत्वपूर्ण तत्वों का ही निर्वचन उसमे मिलता है।
१) अंतरंग तत्व:- उड़ात विचारों या विषय की गरिमा- उनके अनुसार उस कवि की कृति महान नहीं हो सकती जिसमे महान धारणाओं की क्षमता नहीं है। कवि को महान बनाने के लिए अपनी आत्मा में उदात्त विचारो का पोषण करना चाहिए। उन्होंने दृष्टांत देते हुए स्पष्ट लिखा है, ''यह संभव नहीं की जीवन-भर शूद्र उद्देश्यों और विचारों में ग्रस्त व्यक्ति कोई स्तुत्य एवं अमर रचना कर सके।' 'महान शब्द उन्हीं के मुख से निश्रित होता है जिनके विचार गंभीर और महान हो।''
अरस्तु ने विषय को स्वतः साध्य माना था, लोंजाइनस उसे साधन मानते है। उनके मतानुसार यद्यपि यह कार्य प्रतिभा द्वारा ही सिद्ध होता है, तथापि महान कवियों की कृतियों का अनुशीलन भी सहायक हो सकता है। उनके परायण से जो संस्कार हो सकता है, वे निश्चय ही श्रेष्ठ रचना के परायण में सहायक होता है। लोंजाइनस प्राचीन कवियों का अंधानुकरण नहीं चाहते, वह चाहते है की नए कवि उनसे संस्कार ग्रहण करें।
लोंजाइनस के अनुसार विषय में ज्वालामुखी के समान असाधारण शक्ति और वेग होना चाहिए तथा ईश्वर का सा ऐश्वर्य और वैभव भी। विषय ऐसा होना चाहिए जिससे पाठक-श्रोता पर उत्कट तथा स्थायी प्रभाव पड़े। ''जिससे प्रभावित न होना कठिन ही नहीं लगभग असंभव हो जाये और जिसकी स्मृति इतनी प्रबल और गहरी हो की मिटाये न मिटे।''
२) बहिरंग तत्व:- इसे तीन भागों में बाँट सकते है १) समुचित अलंकार योजना:-अलंकारों का प्रयोग तो लोंजाइनस के युग में निर्वाध होता था पर उसका मनोवैज्ञानिक आधार न था। लोंजाइनस ने उनका सम्बन्ध मोनिविज्ञानिक से जोड़ा और मनोवैज्ञानिक प्रभावों को व्यक्त करने के निमित्त ही अलंकारों को उपयोगी ठहराया। केवल चमत्कार-प्रदर्शन के लिए अलंकारों का प्रयोग उन्हें मान्य ना था। वह अलंकारों को तभी उपयोगी मानते थे जब वह जहाँ प्रयुक्त हुआ है, वहाँ अर्थ को उत्कर्ष प्रदान करे, लेखक के भावावेगों से उत्पन्न हुआ हो, पाठक को आनद प्रदान करे, केवल चमत्कृत न करे। भव्य से भव्य अलंकार भी यदि स्थान, परिस्थिति आदि के अनुरूप नहीं है, तो कविता-कामिनी का श्रृंगार न कर उसका बोझ बन जायेगा। वह अलंकारों को निश्चय ही साध्य नहीं मानते थे और यह उस युग के लिए निश्चय ही क्रांतिकारी विचार था। २) उत्कृष्ट भाषा:- इसके अंतर्गत लोंजाइनस ने शब्द चयन, रूपादि का प्रयोग और भाषा की सज्जा को लिया है। भाषा की गरिमा का मूल आधार है शब्द-सौन्दर्य अर्थात उपयुक्त और प्रभावशाली शब्दों का प्रयोग। 'सुन्दर शब्द ही वास्तव में विचार को विशेष प्रकार का आलोक प्रदान करते हैं।' शब्द विन्यास के दो पक्ष होते हैं- ध्वनि पक्ष और अर्थ पक्ष। लोंजाइनस ने दोनों पक्षों पर समुचित ध्यान दिया है। उन्होंने एक चेतावनी भी दी है की हर जगह गरिमामयी भाषा का प्रयोग उचित नहीं। उनका प्रयोग प्रसंग के अनुरूप ही होना चाहिए। ३) रचना-विधान:- उनके अनुसार रचना-विधान गरिमामयी होना चाहिए। रचना-विधान के अंतर्गत शब्दों, विचारों, कार्यों, सुंदरता तथा राग के अनेक रूप का संगुम्फन होता है। उनकी दृष्टि में रचना का प्राप्त तत्व है सामंजस्य जो उदात्त शैली के लिए अनिवार्य है। उन्होंने शैलीगत रचना-विधान कि तुलना शरीर-रचना से करते हुए दोनों को सामान माना है। जिस प्रकार शरीर के विभिन्न अवयवों के अलग-अलग रहने पर कोई महत्त्व नहीं- सब मिलकर ही वे एक समग्र और सम्पूर्ण शरीर कि रचना करते हैं, इसी प्रकार उदात्त शैली के भी तत्व जब एकान्वित कर दिए जाते हैं, तभी उनके कारण कृति गरिमावान बन जाती है।
३) विरोधी तत्व:- विषय को निर्भ्रांत बनाने के लिए लोंजाइनस ने उन तत्वों को भी स्पष्ट किया है, जो उदात्त के विरोधी है। सर्वप्रथम उन्होंने बालेयता को औदात्य का विरोधी माना है।चंचल, पद-गुम्फन, असंगत वाग्विस्तार, हीन और शूद्र अर्थ वाले शब्दों का प्रयोग-ये सब उदात्त शैली के अपकारक है, अतः त्याज्य है। भवादम्बर और शब्दाडंबर को भी वह विरोधी तत्व मानते है। वे उन चमत्कार-प्रयोगों को भी उदात्त का विरोधी समझते है, जो साध्य है, साधक नहीं, तथा जो विवेकपूर्ण प्रयुक्त नहीं किये गये हैं, जिनसें भावाभियंजना में कोई गरिमा नहीं आता।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सजता हैं की उदात्त के स्रोतों का विवेचन करते हुए लोंजाइनस ने उदात्त को एक ऐसी गुणात्मक सत्ता के रूप में देखा हैं जो खंड रूप में कृति के विभिन्न तत्वों में और अखंड रूप में सम्पूर्ण कृति में त्याज्य रहती है। लोंजाइनस का औदात्य सिद्धांत पाश्चात्य समीक्षा की दें है। उनका 'औदात्य' जीवन के अर्जित पक्ष की अभिव्यक्ति है, मधुर पक्ष के लिए उसमे कोई स्थान नहीं है। अतः जीवन के आधे पक्ष का विवेचन करने के कारण उनका शास्त्र अधूरा है। भारतीय काव्यशास्त्र की पूर्णता उसमे कहाँ, जिसमे ओज के साथ माधुर्य गुण भी है। एक ओर वीर और औदात्य रस है तो दूसरी ओर श्रृंगार और हास्य रस है। वह सम्पूर्ण मानव की कृति है। लोंजाइनस की धारणा में इस एकांगिता का कारण यह है कि उन्होंने अपने ग्रंथ का प्रणयन भाषाशास्त्र के रूप में किया था, काव्यशास्त्र के रूप में नहीं। इसलिए सफल भाषा के लिए महत्वपूर्ण तत्वों का ही निर्वचन उसमे मिलता है।
सन्दर्भ सामग्री:
१. पाश्चात्य काव्यशास्त्र:- देवेन्द्रनाथ शर्मा
२. पाश्चात्य साहित्य-चिंतन:- निर्मला जैन, कुसुम बांठिया
३. आलोचक और आलोचना:- बच्चन सिंह
४. पश्चिम का काव्य विचार:- अजय तिवारी
५. काव्यशास्त्र-निरूपण:- डॉ. विजयकुमार
२. पाश्चात्य साहित्य-चिंतन:- निर्मला जैन, कुसुम बांठिया
३. आलोचक और आलोचना:- बच्चन सिंह
४. पश्चिम का काव्य विचार:- अजय तिवारी
५. काव्यशास्त्र-निरूपण:- डॉ. विजयकुमार
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