रस निष्पत्ति के प्रसंग में 'साधारणीकरण' शब्द अपनी विशिष्ट महत्ता रखता है। भरत के प्रख्यात सूत्र 'विभवानुभावव्यभिचारिसंयोगाद् रस निष्पत्तिः' के प्रसिद्ध चार व्याख्याताओं–भट्ट लोलट, श्रीशंकुक, भट्ट नायक और अभिनवगुप्त में से सर्वप्रथम भट्टनायक ने इस शब्द का प्रयोग करते हुए इस तथ्य की भित्ति पर रस निष्पत्ति की व्याख्या की, और अभिनवगुप्त ने भी इसे स्वीकार किया। इसके उपरांत धनंजय, विश्वनाथ और जगन्नाथ ने इस तत्व पर विशिष्ट प्रकाश डाला। इधर वर्तमान युग में हिंदी काव्यशास्त्र में इसकी बहुविध व्याख्या हुई है, जिसमें से आचार्य रामचंद्र शुक्ल और डॉक्टर नगेंद्र की व्याख्याएं सर्व सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
भरत सूत्र के प्रथम 2 व्याख्याताओं- भट्ट लोल्लट और शंकुक की व्याख्याओं पर जो आक्षेप किए गए उनमें से स्पष्टतःऔर प्रकारांतर से किया गया एक आक्षेप यह भी था कि सहृदय दूसरों के भावों से रसास्वाद किस प्रकार प्राप्त कर सकता है, विशेषतः उस स्थिति में जबकि उसमें से किसी एक अथवा कुछ एक अथवा सबके प्रति वे किसी प्रकार का पूर्वाग्रह–श्रद्धा, भक्ति, प्रीति, घृणा आदि में से कोई भाव रखता हो? इसी समस्या के समाधान के लिए भट्टनायक ने 'साधारणीकरण-सिद्धांत' उपस्थित किया। उनके कथनानुसार–'काव्य और नाटक में अभिधा-व्यापार के उपरांत भावकत्व व्यापार के द्वारा विभाव, अनुभाव और संचारी भाव का साधारणीकरण हो जाता है। परिणामस्वरुप सामाजिक के अपने समस्त मोह, संकट आदि का निवारण हो जाता है, तथा इसके द्वारा रस भव्यमान होता है, अथवा शब्द के तीसरे व्यापार भोग की पृष्ठभूमि तैयार हो जाती है।'
भट्टनायक के इस सुबोध और संक्षिप्त वक्तव्य की सर्वप्रथम अभिनवगुप्त ने व्याख्या प्रस्तुत की–
'वाक्यार्थ-ज्ञान के उपरांत साधारणीकरण नमक व्यापार द्वारा सहृदय को कुछ इस प्रकार की मानसी एवं साक्षात्कारात्मिका प्रतीति होती है कि जिसके द्वारा काव्य अथवा नटादि-सामग्री में वर्णित देश,काल, प्रमाता आदि की विषय-सीमा विनष्ट हो जाती है, अथवा ये हर प्रकार के नियामक कारणों के बंधनों से नितांत विमुक्त हो जाता हैं–और वस्तुतः सही साधारणीकरण का परिपोष है।....इस प्रकार यह साधारण्य परिमिति ना रहकर सर्वत्र व्याप्त अथवा सबका सांझा बन जाता है।
अभिनवगुप्त के कथन का निष्कर्ष सरल शब्दों में इस प्रकार है–
साधारणीकरण द्वारा कवि निर्मित पात्र व्यक्ति विशेष न रहकर सामान्य प्राणीमात्र बन जाते हैं-वे किसी देश एवं काल की सीमा में न रह कर सार्वदेशिक एवं सर्वकालिक बन जाते हैं, और उनके इस स्थिति में उपस्थित हो जाने पर सहृदय भी अपने पूर्वाग्रहों से विमुक्त हो जाता है।
अभिनवगुप्त के उपरांत धनंजय ने 'साधारणीकरण' तत्व पर प्रकारांतर से प्रकाश डाला। उन्होंने रस का आश्रय अर्थात् उपभोक्ता अथवा आस्वादयिता सामाजिक को स्वीकार करते हुए यह शंका उठाई कि सामाजिक का विभाव अर्थात आलंबन कौन होता है? यदि अनुकार्य को वास्तविक राम, सीता आदि-को ही आलंबन मान लिया जाए तो सामाजिक का इसके साथ अविरोध क्योंकर रह सकता है? इस शंक का समाधान करते हुए लिखते हैं कि 'काव्य में वर्णित राम आदि वास्तविक राम आदि ना होकर धीरोदात्त आदि नायकों की अवस्थाओं के प्रतिपादक होते हैं। ये काव्यगत राम आदि सामाजिक के रति आदि स्थायिभावों को विभाजित करते हैं, अर्थात उन्हें रसास्वाद का कारण बनाते हैं। ये स्थायिभाव सामाजिक द्वारा रस रुप में आस्वादित किये जाते हैं, क्योंकि यही काव्यगत राम आदि की धीरोदात्त आदि से संबंध अवस्थाएँ ही विशेषभाव को छोड़कर सामाजिक के लिए रस का कारण बनती है।'
तात्पर्य है कि:
काव्य पठन अथवा नाटक दर्शन के समय सामाजिक के सम्मुख ऐतिहासिक व्यक्ति के स्थान पर कवि निर्मित पात्र ही रहते हैं। इनके प्रति सामाजिक का पूर्व संस्कारवश किसी भी प्रकार का विशिष्ट भाव-पूज्य बुद्धि आदि भाव लुप्त हो जाता है, इस दृष्टि से अब रसास्वाद प्राप्त करने में उसे कोई बाधा नहीं रहती। निसंदेह यह स्थिति किसी काव्य में वर्णित पात्र पर ही घटित हो सकती है; इतिहास अथवा पुराण के किसी विशेष व्यक्ति विशेष पर घटित नहीं हो सकती।
धनञ्जय के उपरांत इस दिशा में उल्लेखनीय 'आचार्य विश्वनाथ' हैं। पहले उन्होंने 'साधारणीकरण' की आवश्यकता के संबंध में प्रश्न करते हुए कहा कि 'काव्य नाटक आदि में वर्णित एवं दर्शित राम आदि के रति आदि भाव सामाजिक कि रति आदि भावों के उद्बोधक कारक कहते हैं, किंतु इनसे सामाजिकों के रति आदि का उद्बोधन होता कैसे है? इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा:
"व्यापारोडस्ति विभावादेः नाम्ना साधारणी कृतिः, तत्प्रभावेण,"
अर्थात्
विभाव आदि के व्यापार का नाम साधारणीकरण है, उसके प्रभाव से 'विभाववादी का व्यापार' शब्द से यहां अभिप्रेत है-समस्त क्रियाकलाप का सम्मिश्रित रूप। इसी प्रभाव के ही परिणाम स्वरुप समुद्र को भी कूद जाने वाले हनुमान जैसे महान व्यक्ति के साथ सहृदय अभेद– अथवा साधारण्य अभिमान अर्थात समानभाव- प्राप्त कर लेने के कारण अपने आप को भी वैसे ही समझने लगते हैं, समुद्र लंघन जैसे कठिन कृत्यों में (मानसिक रूप से) उत्साहित हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में कर सकते हैं कि काव्य नाटक में वर्णित ये रति आदि भाव (एक ओर काव्य नाटक के राम आदि पात्रों, और दूसरी और दर्शकों के) साधारण बन जाते हैं, अर्थात् सहृदय को उन्हीं भावों की प्रतीति होती है जिनकी की राम आदि को। ये भाव न तो केवल सहृदयों के होते हैं न केवल राम आदि के। अतः ये भाव दोनों के साधारण ही होते हैं। यही कारण है कि "रसास्वाद के समय इस प्रकार की विशेष सम्बद्धता स्थापित नहीं की जा सकती कि विभाव आदि किसी दूसरे के हैं, अथवा किसी दूसरे के नहीं हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि विश्वनाथ ने अभिनवगुप्त के ही मंतव्य को अधिकांशतः अति स्पष्ट और स्वच्छ रूप में, प्रस्तुत किया है।
विश्वनाथ के उपरांत जगन्नाथ में 'नव्य आचार्यों' के नाम से एक मत उद्धृत किया जिसके अनुसार–
–'काव्य और नाटक में कवि और नट द्वारा विभाव, अनुभाव और संचारी-भाव के प्रकाशित होने पर सामाजिक व्यंजना-व्यापार द्वारा यह स्वीकृत कर लेता है कि दुष्यंत में शकुंतला के प्रति रति भाव है।
–इसके उपरांत (सामाजिक में) सहृदयता के कारण एक विशेष भावना उत्पन्न होती है जो कि वस्तुतः दोष है, जिसके प्रभाव स्वरूप सामाजिक की आत्मा कल्पित दुष्यंतत्व से आच्छादित हो जाती है, अर्थात वह अज्ञान से अविच्छिन्न हो जाता है और तभी उसमें साक्षीभास्य शकुंतला आदि के विषय में अनिर्वचनीय रति आदि चित्वृत्तियां उत्पन्न हो जाती हैं। और इन्हीं रत्यादि का नाम रस है। यह सब इसी दोष के ही कारण होता है, इसके अभाव में रस का भी नाश हो जाता है। –यह दोष ऐसा है जैसा की सीपी के टुकड़े को देखकर चांदी के टुकड़े का भ्रम होता है।
जगन्नाथ द्वारा प्रस्तुत नव्य आचार्यों के इस मत में और भट्टनायक के मत में मुख्यतः दो प्रकार का अंतर है–
(क) ये व्यंजन को स्वीकार करते हैं, किंतु भट्टनायक इसे स्वीकार नहीं करते।
(ख) ये 'दोष' अर्थात् भावना-विशेष अथवा आत्मा की अज्ञानावछिन्नता को मानते है, किंतु भट्टनायक इसे भी नहीं मानते।
इस मत के अनुसार मुख्य मान्यता यह है किः
इस दोष-विशेष द्वारा सामाजिक आलंबन (शकुंतला) के प्रति वैसा भाव उत्पन्न हो जाता है जैसा आश्रय (दुष्यंत) का।
इस प्रकार हमने देखा कि भट्टनायक से लेकर जगन्नाथ द्वारा उद्धृत इन नव्य आचार्यों पर्यन्त 'साधारणीकरण' की व्याख्या तो होती चली गयी है, किंतु उसकी मूल धारणा में विशेष अंतर नहीं पड़ा कि 'किसी विभावादि पर आधारित किसी विशेष समग्र क्रियाकलाप का साधारण रुप ग्रहण कर लेना।
हिंदी के अनेक आधुनिक आलोचकों ने भी 'साधारणीकरण' सिद्धांत की व्याख्या प्रस्तुत की है, जिनमें से आचार्य शुक्ला और डॉक्टर नगेंद्र ने के नाम विशेषतः उल्लेखनीय है। इन दोनों ने इस संबंध में नवीन मान्यताएं एवं व्याख्याएं उपस्थित की हैं।
आचार्य शुक्ल के मंतव्य उन्हीं के शब्दों में इस प्रकार है:-
– साधारणीकरण का अभिप्राय यह है कि पाठक या श्रोता के मन में जो व्यक्तिविशेष या वस्तुविशेष आती है, वह जैसे काल में वर्णित 'आश्रय' के भाव का आलंबन होती है, वैसे ही सब सहृदय पाठकों या श्रोताओं के भाव का आलम्बन हो जाती है।
– जिस व्यक्तिविशेष के प्रति किसी भाव की व्यंजना कवि या पात्र करता है, पाठक या श्रोता की कल्पना में वह व्यक्तिविशेष उपस्थित रहता है।
– साधारणीकरण आलम्बनत्व धर्म का होता है। (पाठक या श्रोता की कल्पना में) व्यक्ति तो विशेष ही रहता है, पर उसमें प्रतिष्ठा ऐसे सामान्य धर्म की रहती है जिसके साक्षात्कार से अब श्रोताओं या पाठकों के मन में एक ही भाव का उदय थोड़ा बहुत होता है।
उक्त कथनों को लक्ष्य में रखकर निष्कर्ष रूप में कहा कर सकते हैं कि आचार्य शुक्ल का 'साधारणीकरण सिद्धांत' को सुगम रूप में प्रस्तुत करने के लिए इसके दो पक्ष (प्रभाग, विभाग खंड) कर दिये हैं– (क) सहृदय का आश्रय के साथ तादात्म्य होता है। (ख) आलंबन या आलम्बनत्व धर्म का साधारणीकरण होता है और इन दोनों व्यापारों का शास्त्रीय नाम साधारणीकरण है।
यहाँ 'आलंबन' से आचार्य शुक्ल का तात्पर्य निसंदेह 'अवलंबनत्व धर्म' से है, अर्थात राम (आश्रय) और सीता(आलंबन) के प्रणय संबंध में सीता रूप आलंबन का साधारणीकरण(सामान्यीकरण) नहीं होता, अपितु सीतात्व का–नायिका भाव अथवा प्रेमिका भाव का होता है। काव्य अथवा नाटक को पढ़ते अथवा देखते समय प्रत्येक बैठक एवं श्रोता को राम और सीता अपने वास्तविक रुप में भी प्रतीत होते रहते हैं-इसमें तनिक भी संदेह नहीं, किंतु यह स्थिति हर समय नहीं रहती, वे उपर्युक्त रामत्व और सीतात्व के रूप में भी प्रतीत होते रहते हैं।
निष्कर्षतः उनके मत में सहृदय का आश्रयत्व धर्म के साथ तादात्म्य होता है, परिणामतः आलम्बनत्व धर्म का सामान्यीकारण होता है और इन दोनों का नाम 'साधारणीकरण' है।
डॉक्टर नगेंद्र ने मूलतः सधारणीकरण के प्रसंग में अपनी यह मान्यता प्रस्तुत की की सधारणीकरण न तो आश्रय(राम) का होता है न आलंबन(सीता) का होता है, अपितु यह 'कवि की अनुभूति' का होता है।
यदि एक और तुलसी के रावण के प्रति हमारे हृदय में तुच्छभाव या घृणाभाव, और राम के प्रति भक्तिभाव जागृत होगा, तो दूसरी और माइकेल के रावण के लिए हमारे हृदय में सहानुभूति जागृत होगी और राम के प्रति तुच्छभाव, किंतु रस हमें दोनों ही अवस्थाओं में मिलेगा, और इसका मूल कारण यह है कि हम लेखक से तादात्मय स्थापित करते हैं। आचार्य शुक्ला ने आलंबन(सीता) का साधारणीकरण माना था, डॉक्टर नगेंद्र ने उनका भी साधारणीकरण माना हैं, किंतु उसे कवि कि अपनी अनुभूति का संवेद्य रूप मानते हुए। उनके शब्दों में ''जिसे हम आलंबन कहते हैं वह वास्तव में कवि की अपनी अनुभूति का संवेद्य रूप है। उसके साधारणीकरण का अर्थ है कवि की अनुभूति का साधारणीकरण।'' उनके कथनानुसार ''कवि वही होता है जो अपनी अनुभूति का साधारणीकरण कर सकता है। अपनी अनुभूति को व्यक्त कर लेना अलग बात है, इसका साधारणीकरण कर लेना अलग बात है। सभी व्यक्ति उसे यत्किंचित व्यक्त तो कर लेते हैं परंतु इसका साधारणीकरण करने की शक्ति कवि में होती है।''
इस प्रकार भट्टनायक से डॉक्टर नगेंद्र तक साधारणीकरण के व्याख्यागाथा प्रस्तुत करने पर इस विषय के संबंध में स्वतंत्र रूप से विचार करने की सामग्री उपस्थित हो गयी है। 'किसी असाधारण(विशेष) पदार्थ का साधारण(सामान्य) रूप में गृहीत होना साधारणीकरण व्यापार कहाता है।' 'काव्य-नाटक में साधारणीकरण विभावादी के सम्मिश्रित क्रियाकलाप का समस्त घटनाचक्र का होता है।' 'इस व्यापार के द्वारा सहृदय अपने समस्त पूर्वाग्रहों से विमुक्त हो जाता है।' 'साधारणीकरण रसास्वाद में भूमिका का कार्य करता है।' 'सहृदय का स्थायिभाव (साधारणीकरण के पृष्ठाधार पर) सहृदयनिष्ठ ही विभावादी का संयोग पाकर रसरूप में अभिव्यक्त हो जाता है।' 'रसात्मकता की मध्यम कोटि स्वीकार नहीं करनी चाहिए।'
सन्दर्भ सामग्री
1) भारतीय काव्यशास्त्र:- डॉ विश्वम्भरनाथ उपाध्याय
2) भारतीय काव्यशास्त्र की भूमिका :- योगेंद्र प्रताप सिंह
3) भारतीय काव्यशास्त्र के नए छितिज:- राम मूर्ति त्रिपाठी
4) भारतीय एवं पाश्चात्य काव्य सिद्धांत:- डॉ. गणपति चंद्र गुप्त
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