जिस प्रकार भारतीय काव्यशास्त्र में काव्य के स्वरूप और उसकी आत्मा को लेकर विभिन्न मतों का प्रतिपादन हुआ है उसी प्रकार पाश्चात्य आलोचना के क्षेत्र में विभिन्न युगों में विभिन्न चिंतकों ने काव्य साहित्य के मूल तत्व की खोज की है।
प्लेटो ने अनुकरण को साहित्य का मूल तत्व माना। इसका पल्लवन अरस्तू ने अपनी दृष्टि से किया और विरेचन को साहित्य का उद्देश्य स्वीकार किया। इसी प्रकार लोंजाइनस का औदात्य सिद्धांत है। इस सिद्धांत के द्वारा उन्होंने यह स्पष्ट किया कि कोई भी कलाकृति या काव्यकृति उदात्त तत्व के बिना श्रेष्ठ रचना नही हो सकती है। श्रेष्ठ वही है जिसमें रचयिता का गहन चिंतन और अनुभूतियाँ रही है। रचनाकार का यह अनुभूति तत्व अपनी महानता, उदात्तता, भव्यता या गरिमा के कारण रचना को महान बनाता है।
लोंजाइनस का उदात्त क्लासिकी या शास्त्रवादी 'उदात्त शैली' नहीं है। बोआलो ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है: ''उदात्त' से लोंजाइनस का तात्पर्य वह नहीं है जिसे वक्तृत्व-विशारद 'उदात्त शैली' कहते हैं। उदात्त शैली के लिए तो उच्च या भव्य भाषा की आवश्यकता हैं जबकि उदात्त एक अकेले विचार, एक उक्ति या एक वाक्यांश में भी प्रकट हो सकता है।'' शास्त्रवादी जिसे उदात्त शैली कहते थे, वह लोंजाइनस की दृष्टि में 'वागाडंबर' था। उदात्त के सम्बन्ध में लोंजाइनस सामान्यतः इतना ही कहता है कि ''वह वाणी का ऐसा वैशिष्ट्य और चरमोत्कर्ष है जिससे महान कवियों और इतिहासकारों को जीवन में प्रतिष्ठा और यश मिला है।'' लोंजाइनस इसके प्रभाव कि और संकेत करता हुआ कहता है कि उसका प्रभाव श्रोताओं पर अनुनयन के रूप में नहीं बल्कि अतिक्रमण के रूप में होता है। संक्षेप में लोंजाइनस यह कहना चाहता है कि 'उदात्त' काव्य या वक्तृता का ऐसा विशिष्ट गुण है किसकी विशेषता पाठक और श्रोता पर उसके प्रभाव से पहचानी जाती है। इस प्रभाव कि विशेषता यह है कि वह चेतना, में एक प्रकार का गुणात्मक परिवर्तन उत्पन्न कर देता है। ऐसा प्रभाव उत्पन्न करनेवाली वस्तु का बखान इसलिए मुश्किल है कि लोंजाइनस के शब्दों में ''किसी रचना के सृजनात्मक कौशल, समुचित वस्तुयोजना तथा वस्तु-विन्यास दो-एक युक्तियों में उद्भासित नहीं होता, बल्कि वे कृति कि पूरी बनावट के बीच से क्रमशः उभरते हैं।''
इसके पश्चात लोंजाइनस एक-एक कर क्रमशः उदात्त के तत्वों के विश्लेषण की और अग्रसर होते हैं। लोंजाइनस का यह विश्लेषण इतना द्वंदात्मक है कि उसके उदात्त कि परिधि में अनेक परस्पर विरोधी और नितांत भिन्न तत्व सहज ही सन्निविष्ट हो जाते हैं। उसकी दृष्टि में यदि एक और उत्साह का चित्र उदात्त है, तो दूसरी और भय का चित्र भी। भावयोग में उदात्त को परिलक्षित करने वाले लोंजाइनस भावशून्य शांत वाणी में निहित उदात्त को भी देखने कि क्षमता रखता है।काव्य-वस्तु के रूप में विराट प्रकृति को लोंजाइनस उदात्त समझता है। वस्तुतः लोंजाइनस की दृष्टि मानव-कल्पना में निहित विराटता कि और थी और प्रकृति उस विराट कल्पना का आलम्बन मात्र है। उनकी दृष्टि में विराट प्रकृति इसलिए उदात्त है कि अपनी विराटता के द्वारा वह मानव को अनेक प्रकार की क्षुद्रताओं से ऊपर उठती है। लोंजाइनस का उदात्त एक ऐसी व्यापक अवधारणा है जिसमे प्रकृतिक विराटता, अलौकिक विस्तार, मानवीय गरिमा, भावनाओं की प्रबलता, उद्दाम आवेग, मानविक ऊर्जा, विस्मियकारी असाधारणता आदि के साथ-साथ परिशन्ति और सरलता का भी समावेश है।
उदात्त के स्रोत:-
उदात्त के लोंजाइनस पांच श्रोत मानते हैं:-
१) महान और पुष्ट विचारों के धारण की क्षमता।
२) प्रबल भावावेग की प्रेरणा।
३) अलंकारों की समुचित योजना।
४) अभिजात पद-रचना।
5) गरिमा और ऊँचाई का समग्र प्रभाव।
लोंजाइनस के अनुसार प्रथम दोनों प्रतिभा की दें हैं और शेष कला की। उदात्त के इन पांचों श्रोतों का मूल स्रोत लोंजाइनस की दृष्टि में एक ही है- महान आत्मा क्योंकि ''औदात्य महान आत्मा की सच्ची प्रतिध्वनि है।'' और ''उदात्त वाणी शुद्धात्मा व्यक्ति को सहज ही प्राप्त होती है।''
१) महान और पुष्ट विचारों के धारण की क्षमता:- लोंजाइनस इसे सर्वोपरि महत्त्व देते है। वह इसे 'नैसर्गिक प्रतिभा' कहते है यानि 'महान और पुष्ट विचारों के धारण की क्षमता' प्रतिभावान कृतिकाओं में ही होती है। क्योंकि इन प्रतिभावान वक्ताओं के मन न तो शूद्र होते है और न अधम अन्यथा उनके लिए कोई अमर या अद्भुत रचना करना असंभव हो जाता। महान धारणाओं की यह क्षमता अनेक रूपों में प्रतिफलित होती दिखाई देती है। गंभीर विचारों के रूप में जो अपने विस्तार में विश्व का ओर-छोर नाप लेती है और जो एक ओर दिव्य शक्तियों का अतिरंजित वर्णन करती है, दिव्य स्वभाव का उसके पवित्र, शानदार और अद्वितीय रूप में चित्रण करती है, और दूसरी और मानवीय क्रिया-कलापों का। अतः महान धारणाओं की शमता से तात्पर्य हुआ, तेजस्वी प्रसंगों की पकड़ और उनके मूल में निहित औदात्य का उद्घाटन।
२) प्रबल भावावेगों की प्रेरणा:- लोंजाइनस ने पुरे विश्वास के साथ कहा है कि भव्यता के लिए उचित प्रसंग में सच्चे भाव से बढ़कर साधक और कुछ नहीं होता। वह शब्दों को एक मनोरम उन्माद से अनुप्राणित कर देता है और उन्हें दिव्य आवेग से भर देता है। लोंजाइनस संवेग और औदात्य में नित्य सम्बन्ध नहीं मानते। इसके अतिरिक्त वह कुछ संवेगों को शूद्र एवं अनुदात्त मानता है, जैसे करुणा और भय तथा कुछ उदात्त अंशों को संवेगहीन मानता है, अर्थात न तो सभी उदात्त प्रसंगों का संवेगपूर्ण होना अनिवार्य है और न प्रत्येक संवेगपूर्ण प्रसंगों का उदात्त होना।
३) अलंकारों कि समुचित योजना:- 'पेरिइप्सुस' के ४४ अध्यायों में १४ अध्याय अलंकारों पर है। अलंकार स्वभावतः उदात्त के सहायक होते हैं और इस सहायता के बदले में वे स्वयं उससे अद्भुत बल प्राप्त करते हैं। लोंजाइनस विवेचन के लिए केवल उन्ही अलंकारों का चुनाव करते हैं जो किसी न किसी रूप में उदात्त प्रभाव कि सृष्टि में सहायक होते हैं। अलंकार के प्रयोग कि पहली शर्त है औचित्य या प्रसंगानुकूलता; अर्थात अलंकार के प्रयोग के पीछे परिस्थिति या संवेग का अनुरोध होना चाहिए।
अलंकारों के प्रयोग में अतिरंजना का लोभ औचित्य कि एक अत्यंत स्वाभाविक दिशा है। इसलिए लोंजाइनस अलंकारों के चतुर प्रयोग का निषेध कर सहजता का समर्थन करते दिखाई पड़ते हैं। ''अलंकार सर्वाधिक प्रभावशाली तब होता हैं जब इस बात पर ध्यान ही न जाये कि वह अलंकार है।''
४) अभिजात पद-रचना:- पद-रचना के विशेषण 'अभिजात' से लोंजाइनस का तात्पर्य उदात्त से ही है। अलंकारों की ही तरह शब्दाबली के चुनाव में भी लोंजाइनस जहा मनोहारिता का समर्थन करता है, वह उपर्युक्त का भी। भव्य भाषा का प्रभाव निश्चय ही सम्मोहक होता है किन्तु तभी तब वह विचारों के अनुकूल हो। जहाँ यह अनुपात बिगड़ता, वह स्थिति 'अबोध शिशु के मुख पर एक बड़े आकर वाला त्रासद मुखौटा लगाने के समान हो जाती है।
५) गरिमा और ऊँचाई का समग्र प्रभाव:- 'पेरिइप्सुस' में लोंजाइनस ने शब्द, लय और उसके प्रभाव पर विचार किया है। शब्दगत लय का सम्बन्ध लोंजाइनस मानव-प्रकृति में अंतर्निहित संवेगों से मानते है। रचना में समुचित क्रम से किये गए शब्द-विन्यास से जो विषयानुकूल लय उत्पन्न होता है, उसका प्रभाव मन पर अत्यंत उदात्त होता है और वह श्रोता को रचनाकार के अनुभव का सहभागी बनाती है। लोंजाइनस जिस प्रकार अलंकारों के अतिरंजित प्रयोग को उदात्त के लिए घातक मानता है, उसी प्रकार अतिलयात्मक प्रसंगों को भी।
सन्दर्भ सामग्री:
१. पाश्चात्य काव्यशास्त्र:- देवेन्द्रनाथ शर्मा
२. पाश्चात्य साहित्य-चिंतन:- निर्मला जैन, कुसुम बांठिया
३. आलोचक और आलोचना:- बच्चन सिंह
४. पश्चिम का काव्य विचार:- अजय तिवारी
५. काव्यशास्त्र-निरूपण:- डॉ. विजयकुमार
२. पाश्चात्य साहित्य-चिंतन:- निर्मला जैन, कुसुम बांठिया
३. आलोचक और आलोचना:- बच्चन सिंह
४. पश्चिम का काव्य विचार:- अजय तिवारी
५. काव्यशास्त्र-निरूपण:- डॉ. विजयकुमार
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