काव्य मानव जीवन की सर्वोत्तम उपलब्धि है। प्रत्येक व्यक्ति इसकी रचना नहीं कर सकता। जीवन के उतार-चढ़ावों का अनुभव सभी करते हैं, प्रकृति के रंग में रूपों को भी सभी देखते हैं, हर्ष के समय उल्लास और विषाद के समय अवसाद की रेखाएं भी सार्व साधारण के मुख्य दृष्टिगोचर होती है। किन्तु इन सब अनुभूतियों को अपने हृदयपटल से काव्य-फलक पर यथावत प्रतिबिंबित कर देना सभी के सामर्थ्य की बात नहीं, तब वह कौन से उपकरण हैं, जिनके बल से काव्य का निर्माण होता है?
कवि में काव्य निर्माण की सामर्थ्य उत्पन्न करने वाले साधनों को काव्य हेतु या काव्य का कारण कहा जाता है। काव्य हेतु की चर्चा भारतीय काव्यशास्त्र में विस्तार से की गई है। सभी प्रमुख आचार्य ने अपने ग्रंथों में काव्य हेतु के विषय में अपने विचार व्यक्त किए हैं।
संस्कृत काव्यशास्त्री
आचार्य भामह ने काव्य हेतु के रूप में केवल प्रतिभा का उल्लेख किया है उनके अनुसार:
गुरूपदेशादध्येतुं शास्त्रं जडधियोडप्यलम्।
काव्यं तु जायते जातु कस्यचित् प्रतिभावतः।।
"गुरु के उपदेश से जड़बुद्धि भी शास्त्र अध्ययन कर सकता है, पर काव्य की रचना तो कोई प्रतिभावान ही कर सकता है।"
आचार्य दण्डी की पुस्तक 'काव्यादर्श' है जिसमें उन्होंने तीन काव्य हेतु की चर्चा की है:-
नैसर्गिकी च प्रतिभा श्रुतं च बहुनिर्मलम्।
अमन्दाश्चाभि योगोडस्याः कारणं काव्य संपदः।।
1) नैसर्गिक प्रतिभा
2) विस्तृत निर्दोष शास्त्र ज्ञान और
3) अमन अभियोग अर्थात अथक परिश्रम
रुद्रट तथा कुंतक ने भी इनकी संख्या तीन गिनायी है शक्ति, व्युत्पत्ति और अभ्यास।
वामन ने अपने ग्रंथ 'काव्यालंकारसूत्रवृत्ति' में काव्य हेतु के अर्थ में 'काव्यांग' शब्द का प्रयोग करते हुए तीन काव्य हेतुओं की चर्चा की है।
'लोको विद्याप्रकीर्णस्य काव्यांगानि।'
1) लोक
2) विद्या
3) प्रर्कीण
'लोक' से अभिप्राय लोक व्यवहार का ज्ञान है। 'विद्या' अर्थात् 'शब्दशास्त्र', 'छंदशास्त्र', 'दंडनीति' आदि विभिन्न शास्त्रों का ज्ञान। 'प्रर्कीण' के अंतर्गत वामन ने छः काव्य हेतुओं का समावेश किया है।
लक्ष्य ज्ञान- दूसरे कवियों के काव्य का अनुशीलन। अभियोग-अथक परिश्रम
वृद्ध सेवा-काव्य कला की शिक्षा देने योग्य गुरुजनों की सेवा
अवेक्षण-अपनी रचना के लिए अच्छे अच्छे शब्दों का प्रयोग करना और अनुपयुक्त का त्याग
प्रतिभान- प्रतिभा जो कवित्व का जीव है बीज है
अवधान-चित्त की एकाग्रता
सारग्राही मम्मट के सम्मुख उपर्यक्त सभी काव्यहेतु थे। उन्होंने स्वसम्मत तीन काव्यहेतुओं में उन सबको अन्तर्भूत कर दिया–
'शक्तिर्निपुणता लोककाव्यशास्त्राद्यवेक्षणात्।
काव्यज्ञ-शिक्षयाडभ्यास इति हेतुस्तदुद्भवे।।'
अर्थात् कवि में संस्कार रूप में विद्यमान शक्ति, लोक-व्यवहार, शास्त्र तथा काव्य आदि के पर्यालोचन से उत्पन्न निपुणता और काव्य-मर्म को जानने वाले गुरु की शिक्षा के अनुसार काव्य-निर्माण का अभ्यास ये तीनों ही समष्टि रूप से काव्य के हेतु हैं।
इस विवेचन से स्पष्ट है कि संस्कृत के आचार्य ने काव्य के तीन प्रयुक्त हेतु माने है।
1) शक्ति/प्रतिभा – शक्ति का अभिप्राय यहां शारीरिक बल अथवा साहस से नहीं, अपितु विशेष प्रकार के संस्कार से है जिसके कारण कवि ने कवि कवित्व के अंकुर पनपते हैं। इस शक्ति का महत्व बताते हुए अग्नि पुराण में कहा गया है कि एक तो मनुष्य का जीवन प्राप्त होना दुर्लभ है और उसमें विद्या का होना दुर्लभ है। इसमें भी कविता दुर्लभ है तथा सबसे दुर्लभ शक्ति है। यह शक्ति विशेष संस्कारवश दैवी कृपा के रूप में किसी किसी को ही प्राप्त होती है, इसी को ही आचार्य दंडी ने नैसर्गिक प्रतिभा कहा है।
भामह से लेकर जगन्नाथ तक प्रायः सभी प्रमुख आचार्यों ने प्रतिभा का लक्षण प्रस्तुत किया है। काव्य हेतु में प्रतिभा का स्थान सर्वोपरि है। रुद्रट के अनुसार 'जिसके बल से कवि अपने एकात्म मन में उठने वाले विभिन्न काव्य विषयों को अनुकूल शब्दों में अनायास ही अभिव्यक्त कर देता है उसे प्रतिभा कहते हैं।' प्रतिभा नृत्य नवीन उद्भावना करने वाली मानसिक शक्ति है। भट्ट तौत ने नए-नए भावों के उन्मेष से युक्त प्रज्ञा को प्रतिभा कहा है–
'प्रज्ञा नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा विदुः।'
आचार्य अभिनवगुप्त ने प्रतिभा को अपूर्व वस्तुओं के निर्माण में सक्षम कहा है–
'प्रतिभा अपूर्ववस्तु निर्माणक्षमा प्रज्ञा।'
2) व्युत्पत्ति/निपुणता– व्युत्पत्ति का अर्थ है 'बहुज्ञता' या 'प्रगाढ़ पांडित्य'। व्युत्पत्ति का मूल हैतू नैसर्गिक अथवा दिव्य शक्ति होते हुए भी उसके रचयिता के पास व्यवहारिक जानकारी का भंडार होना आवश्यक है। जिसकी प्राप्ति शास्त्रों के ज्ञान और लोक निरीक्षण द्वारा हो सकती है। शास्त्र निरिक्षण के बिना लोक निरीक्षण व्यर्थ एवं किसी सीमा तक असंभव है। शास्त्र अध्ययन द्वारा ही सांसारिक अनुभव सार्थक और सहायक सिद्ध होते हैं। शास्त्र ज्ञान विहीन व्यक्ति की रचना शिथिल और अपूर्ण ही रहेगी। शास्त्र विरुद्ध रचना को तो आचार्यों ने काव्य दोष ही माना है। राजशेखर ने लिखा है उचित-अनुचित का विवेक व्युत्पति है–
"उचितानुचित विवेको व्युपत्तिः।"
3)अभ्यास– निरंतर प्रयास करते रहने को अभ्यास कहते हैं। काव्य का एक हेतु 'अभ्यास' भी है। अभ्यास की महिमा सर्वविदित है। किसी 'कार्य' का निरंतर अभ्यास ही उसे 'कौशल' बना देता है। रीतिकालीन कवि वृंद की यह उक्ति बहुत ही सटीक है-
करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।
जब अभ्यास द्वारा 'जड़मति' भी सुजान हो सकता है, तब कोई सहृदय प्रतिभावान एवं अनुभवी व्यक्ति तो अवश्य ही महान कवि बन सकता है। किसी भी कवि का प्रारंभिक काव्य उतना ही प्रौढ़ और प्रभावशाली नहीं होता, जितना अभ्यासोपरांत रचित काव्य उसे यश और अमरत्व का अधिकारी बना देता है। यह उक्ति सर्वथा सार्थक है कि विद्या अभ्यास बिना विषम होती है।
हिंदी आचार्यों का मत
हिंदी के रीतिकालीन आचार्यों ने प्रायः संस्कृत आचार्यों का मत स्वीकार करते हुए काव्य के उपयुक्त तिन ही हेतु बताए हैं। इस संबंध में आचार्य भिखारीदास और अमीरदास के मत विशेष उल्लेखनीय है। भिखारीदास का कथन है कि "जिस प्रकार अश्व, सारथीऔर चक्र तीनों के एकत्र होने से ही रथ गतिमान होता है, उसी प्रकार शक्ति, सुकवियों से सीखी हुई काव्य रीति एवं लोक ज्ञान इन तीनों हेतुओं के सम्मिलित संयोजन द्वारा हृदयाकर्षक काव्य का निर्माण होता है।"
आधुनिक युग में मानव मूल्यों का महत्व विशेष रुप से बढ़ा है। नैसर्गिक प्रतिभा अथवा शास्त्र ज्ञान की अपेक्षा कवि के व्यक्तित्व को ही आधुनिक विद्वान सबसे प्रमुख काव्य हेतु मानते हैं। यदि ध्यानपूर्वक विचार किया जाए तो आधुनिक युग में मान्य "व्यक्तित्व" का निर्माण वास्तव में प्रतिभा, क्षमता, निपुणता और विद्वता के सुंदर समन्वय पर आधारित है।
पाश्चात्य काव्यशास्त्र में काव्य हेतु
पाश्चात्य काव्याचार्यों, कवियों, दार्शनिकों तथा मनोवैज्ञानिकों ने भी प्रत्यक्ष रुप से अथवा प्रकारांतर से 'कार्य हेतु' विषय पर प्रकाश डाला है, जिसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है:-
प्लेटो के अनुसार कवि विक्षिप्त प्राणी है और उसका काव्य विक्षिप्त क्षणों की वाणी। उनका 'विक्षिप्त' शब्द निसंदेह निंदनीय अर्थ का घोतक है, फिर भी यह स्पष्ट है कि कवि के यह क्षण असामान्य ही होते हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने कलाकार के लिए चिंतन और कला शिल्प से परिचित होना भी आवश्यक माना है, जो भारतीय दृष्टि से क्रमशः अभ्यास एवं व्युत्पत्ति के पर्याय माने जा सकते हैं।
अरस्तु के अनुसार कला की मूल प्रेरणा है–अनुकरण की प्रवृत्ति जो मानव को बाल्यावस्था से ही प्राप्त होती है। अनुकरण का मूल कारण है मानव पर जन्मजात सौंदर्य प्रेम और सौंदर्य प्रेम से मानव में आत्मप्रदर्शन की भावना उत्पन्न होती है। अतः प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक कांट और हीगल के अनुसार सौंदर्य प्रेम, आत्म प्रदर्शन और अनुकरण इन तीनों की सहज प्रवृत्ति को भी काव्य हेतु स्वीकार किया जाता है। वर्ड्सवर्थ के अनुसार 'काव्य का जन्म शांति के क्षणों में स्मरण किए गए प्रबल मनोवेगों से होता है।' साथ ही उन्होंने भावना की सचाई पर भी बल दिया।
कालरिज के अनुसार प्रतिभा संपन्न कवि अपने सवत्व से निरपेक्ष रहकर विश्व के प्रत्येक प्राकृतिक पदार्थ से–पुष्पा,वृक्षों,पशुओं आदि से-प्रतिबिंबित मूल्य तत्वों को समझने की चेष्टा करें। स्पष्टतः इस कथन को हम प्रतिभा और लोकज्ञान से संबद्ध कर सकते हैं।
इस प्रकार पाश्चात्य चिंतकों के अनुसार स्पष्टतः अथवा प्रकारांतर से कतिपय काव्य-हेतु तो वही स्वीकृत हुए जो भारतीय काव्याचार्यों ने माने थे–प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास, तथा कुछ नूतन भी हैं, जैसे–अनुकरण, सौंदर्य प्रेम, प्रबल मनोवेगों का सहज उच्छलन, अभिव्यक्ति आदि।
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