Saturday, 16 December 2017

काव्य प्रयोजन

काव्य जीवन की अभिव्यक्ति है। जीवन से साहित्य का अटूट संबंध है अतः जीवन-प्रेरणाएँ ही काव्य प्रेरणाएँ हैं। जीवन के आदर्श ही साहित्य/काव्य के आदर्श और प्रयोजन है। काव्य प्रयोजन का तात्पर्य है 'काव्य रचना का उद्देश्य'। वस्तुतः काव्य प्रयोजन काव्य प्रेरणा से अलग है क्योंकि काव्य प्रेरणा का अभिप्राय है काव्य की रचना के लिए प्रेरित करने वाले तत्व जबकि काव्य प्रयोजन का अभिप्राय है काव्य रचना के अनंतर प्राप्त होने वाले लाभ।


संस्कृत आचार्यों ने काव्य प्रयोजन पर विभिन्न दृष्टियों से विचार किया है भरतमुनि के कथनानुसार– नटक(काव्य) धर्म, यश और आयु का साधक, हितकारक, बुद्धि का वर्द्धक तथा लोकउपदेशक होता है-
धर्म्य यशस्यमायुष्यं हितं बुद्धिविर्द्धनम्।
लोकोपदेशजननं नाट्यमेतद् भविष्यति।।
भामह के शब्दों में-उत्तम काव्य की रचना धर्म, अर्थ काम और मोक्ष रूप चारों पुरुषार्थों को तथा समस्त कलाओं में निपुणता को, और प्रीति(आनंद) तथा कीर्ति को उत्पन्न करती है–
धर्मार्थकाममोक्षेषु वैचक्षण्यं कलासु च।
करोति कीर्ति प्रीति च साधुकाव्यनिबन्धनम्।।
अभिनवगुप्त ने काव्य प्रयोजन में आनंद प्राप्ति को ही सर्वाधिक महत्व दिया है। उनका कथन है कि कीर्ति का भी प्रमुख प्रयोजन आनंद ही है। "कार्य का प्रधान प्रयोजना आनंद साधना ही है। धर्म, अर्थ आदि चारों वर्गों का भी अंतिम मुख्य फल आनंद ही है।''
 कुंतक ने भी काव्य-प्रयोजन संबंधी लगभग वही धारणा प्रकट की है जो भामहके श्लोक में है।
आचार्य मम्मट ने काव्य प्रयोजन के संबंध में विशदतापूर्वक विचार किया है। उन्होंने यश, अर्थ प्राप्ति, व्यवहार ज्ञान, शिवेतर क्षति, कान्तासम्मिति उपदेश एवं रसास्वाद की प्रप्ति को काव्य प्रयोजन बतलाया है, और इनके परवर्ती सभी आचार्यों ने इनके ही मत को स्वीकार किया है।
काव्यं यशसेडर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये।
सद्यःपरनिवृर्तये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे।।
आचार्य विश्वनाथ ने भी काव्य प्रयोजन की विस्तृत व्याख्या करते हुए धर्मार्थ आदि चतुर्वर्ग की प्राप्ति, रसानंद, व्यवहार-ज्ञान तथा सरस-उपदेश की उपलब्धि को ही मुख्य काव्य प्रयोजन बताया है।
हिंदी रीतिकालीन आचार्य में चिंतामणि, कुलपति, भिखारीदास आदि ने भी मम्मट के मतानुसार काव्य की विविध प्रयोजनों का वर्णन किया है अतः यहां काव्य के इन प्रयोजनों की व्याख्या अपेक्षित है।

 यशः प्राप्ति–  प्रभुत्व कामना, बढ़ाई पाया या अहम मानव की मूल प्रवृत्ति है। मानव अपनी मृत्यु के पश्चात भी अपना प्रभाव, अपनी स्मृति यहां छोड़ जाना चाहता है, मनोवैज्ञानिकों ने भी इस वृत्ति को सत्य माना है। काव्य सृजन के मूल में यह एक प्रमुख प्रेरणा है। सहृदय पाठक के लिए यदि काव्य अलौकिक आनंद का प्रदाता है तो कभी को अक्षय यश प्रदान करना भी उसका मुख्य उद्देश्य है। बाल्मीकि, कालिदास, कबीर, सूर, मीरा, निराला, भारतेंदु- इन सभी की कीर्ति-कौमुदी का एकमात्र श्रेय इसके द्वारा रचित काव्य को है। वे कविगण भले ही निष्काम आत्मसुख के हेतु काव्य-रचना करते रहते हो किंतु आज उनकी यशः दीप्ति के प्रसार का कारण का काव्य है।

 अर्थ प्राप्ति–  भौतिक प्रलोभनों में धन भी आता है। पुराने समय में कवि राजाश्रम में रहकर इसकी प्राप्ति करते थे। धन प्राप्ति की इच्छा काव्य की एकमात्र प्रेरणा नहीं है, परंतु भौतिक प्रेरणाओं में एक महत्वपूर्ण प्रेरणा अवश्य है। काव्य ने असंख्य कवियों की झोली स्वर्ण-रजत से भरी है। गंग कवि, केशव, भूषण और बिहारी के दृष्टांत काव्य द्वारा अर्थ प्राप्ति के ज्वलंत उदाहरण है। वर्तमान युग में तो काव्य धनार्जन का उत्तम साधन बन गया है। केंद्र एवं राज्य सरकारों की ओर से समय समय पर कवियों को भेट स्वरूप दी जाने वाली राशि इसके प्रमाण हैं।

 व्यवहार ज्ञान–  व्यवहार ज्ञान का अभिप्राय सामाजिक शिष्टाचार एवं लोकनीति से है। देशकाल और वातावरण के अनुकूल आचरण की प्रेरणा देने में काव्य का महत्वपूर्ण स्थान है। 'मेघदूत' हो या 'रामचरितमानस' बिहारी की 'अन्योक्तियां' हो या भारतेन्दु की 'मुकरियां' या फिर मैथिलीशरण गुप्त की 'भारत भारती' के गेय पद। वास्तव में  काव्य ने पाठकों की व्यवहार-विद्या को सदैव परिष्कृत किया है।

 शिवेत्तर क्षति– 'शिव' से इत्तर अर्थात अशिव, अशुभ अथवा अमंगल की क्षति करना ही काव्य का प्रयोजन है। संस्कृत कवि मयूर ने 'सूर्यशतक' लिखकर कुष्ठ रोग से छुटकारा पाया था। 'स्वांत सुखाय' रचना करने वाले तुलसीदास जी ने 'हनुमान बाहुक' की रचना करके बाहु की पीड़ा से मुक्ति पाई थी। आज के मनोवैज्ञानिक भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि अनेक प्रकार के रोगियों को काव्य सेवन द्वारा पर्याप्त निरोगता मिलती है। यह संभव है कि काव्य रचयिता अथवा काव्य प्रेमीजन इस लोक में दुखः ग्रस्त रहे किंतु काव्य द्वारा अपना 'आशिव' तो हो ही नहीं सकता और परलोकगमन के उपरांत तो उनका नाम ही स्वयं मंगलकारी हो जाता है।
महाकवि तुलसीदास ने काव्य प्रयोजन के क्षेत्र में स्वांतः सुखाय की चर्चा की है परंतु उनका काव्य जनहिताय सिद्ध हो गया है।

सघः परनिवृति–  सघ-परनिवृत्ति का तात्पर्य है-तत्काल आनंद प्राप्ति अथवा सघः मुक्तावस्था। आनंद लाभ की लालसा मनुष्य की प्रबलतम प्रवृत्ति है। यही प्रवृत्ति सभी ललित कलाओं की जन्मदात्री है और इन ललित कलाओं में काव्य की सर्वोच्च सत्ता निर्विवाद है। काव्य कर्ता ही नहीं, उसके पाठक, श्रोता अथवा दर्शक की दृष्टि से भी काव्य का सर्वप्रधान प्रयोजन यही है। काव्य में तल्लीन होकर हम सुध-बुध भूल जाते हैं और एक अद्भुत मस्ती में डूब कर गदगद हो जाते हैं। इसलिए आचार्यों ने काव्यानंद को ब्रह्मानंद सहोदर की संज्ञा दी है। लोक में रहते हुए यदि मुक्त अवस्था की स्थिति है। सौन्दर्यवादी दृष्टि से भी यह काव्य प्रयोजन सहृदयों को ग्रह्य है।
आजकल कुछ विद्वान 'काव्य के उद्देश्य' पर विचार करना निरुद्देश्य समझते हैं। उनका मत है कि काव्य एक ललित कला है, जो सौंदर्य का  प्रत्यक्षीकरण है। उसका मूल उत्स आनंद है और आनंद का कोई प्रयोजन नहीं होता। प्रगतिवादी रचनाओं में अपने काव्य का उद्देश्य समाजोत्थान एवं पूंजीवाद का विरोध मानना है। प्रयोगवादी और नई कविता के कवि काव्य का प्रयोजन व्यक्तित्व के प्रकाशन को मानते हैं।

काव्य से आनंद की प्राप्ति होती है, संदेह नहीं पर आनंद प्राप्ति ही उसका अंतिम लक्ष्य नहीं है। साहित्य हमारी जीवन संवेदना को प्रकट करता है वस्तुतः काव्य हृदय की भाव पद्धति पर चलता है जबकि अन्य रचनाएं तर्कबुद्धि पर अधिक निर्भर होती है। मानसिक विकास द्वारा आत्म परिष्कार के उपकरण जुटाकर काव्य एक प्रकार से 'सत्य, शिव और सुंदर' की स्थापना में पूर्ण योग दिया है। अतः वह प्रयोजनातीत होता हुआ भी मानव जीवन का सर्वस्व है। उसकी उपयोगिता को किसी कारण भी अस्वीकरण नहीं किया जा सकता।  

सन्दर्भ सामग्री

1) भारतीय काव्यशास्त्र:- डॉ विश्वम्भरनाथ उपाध्याय
2) भारतीय काव्यशास्त्र की भूमिका :- योगेंद्र प्रताप सिंह
3) भारतीय काव्यशास्त्र के नए छितिज:-  राम मूर्ति त्रिपाठी
4) भारतीय एवं पाश्चात्य काव्य सिद्धांत:- डॉ. गणपति चंद्र गुप्त

No comments:

Post a Comment