प्रमुख काव्यशास्त्री
संस्कृत काव्यशास्त्र की जो परंपरा भरतमुनि से शुरू होती है वह आचार्य पंडितराज जगन्नाथ तक चलती है. लगभग डेढ़-दो सहस्रा वर्षो का यह शास्त्रीय साहित्य अपनी व्यापक विषय- सामग्री, अपूर्व एवं तर्क-सम्मत विवेचन-पद्दति और अधिकांशतः प्रौढ़ एवं गंभीर शैली के कारण, तथा विशेषतः नूतन मान्यताओं के प्रस्तुत करने के बल पर भारतीय वाङ्मय में अपना विशिष्ट स्थान रचता है.
कतिपय प्रख्यात एवं उत्पादक आचार्य का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है:
1. भरत मुनि
भरत मुनि की ख्याति नाट्यशास्त्र के प्रणेता के रूप में है, पर उनके जीवन और व्यक्तित्व के विषय में इतिहास अभी तक मौन है। इस संबंध में विद्वानों का एक मत यह भी है कि भरतमुनि वस्तुतः एक काल्पनिक मुनि का नाम है। इन कतिपय मतों को छोड़ दे तो भरत मुनि को संस्कृत काव्यशास्त्र का प्रथम आचार्य माना जाता है।आचार्य बलदेव उपाध्याय ने इनका समय द्वितीय शताब्दी माना है। भरत मुनि की प्रसिद्ध रचना नाट्यशास्त्र है। आचार्य भरत ने नाट्यशास्त्र को 'पंचमवेद' भी कहा है। नाट्यशास्त्र में 36 अध्याय तथा लगभग पाँच हजार श्लोक हैं।
नाट्यशास्त्र नाट्यविधियों का अमर विश्वकोश है।नाटक की उत्पत्ति, नाट्यशाला, विभिन्न प्रकार के अभिनय, नाटकीय सन्धियाँ, वृत्तियाँ, संगीतशास्त्रीय सिद्धांत आदि इसके प्रमुख विषय हैं। इसके अतिरिक्त ६ठे, ७वें और १७वें अध्यायों में काव्यशास्त्रीय अंगों- रस, गुण, दोष, अलंकार तथा छंद कवि निरूपण हुआ है। नायक-नायिका-भेद का भी इस ग्रंथ में निरूपण हुआ है। भरतमुनि ने 'नाट्यशास्त्र' में दस गुण, दस दोष तथा चार अलंकार(यमक उपमा रुपक तथा दीपक) की मीमांसा की है। भरतमुनि ने रस की संख्या आठ मानी है।
2. भामह
आचार्य बलदेव उपाध्याय ने भामह का समय षष्ठ शती का पूर्वार्द्ध निश्चित किया है। भामह कश्मीर के निवासी थे तथा इनके पिता का नाम रक्रिल गोमी था। सर्वप्रथम भामह ने ही अलंकार को नाट्यशास्त्र की परतन्त्रता से मुक्त कर एक स्वतंत्र शास्त्र या संप्रदाय के रूप में प्रतिष्ठित किया। भामह के प्रसिद्ध ग्रंथ का नाम 'काव्यालंकार' है। इसका अन्य नाम भामहालंकार भी है। इस ग्रंथ में ६परिच्छेद हैं तथा कुल ४०० श्लोक है।भामा अलंकारवाद के समर्थक थे। इन्होंने 'वक्रोक्ति' को सब अलंकारों का मूल माना है। काव्य का लक्षण सर्वप्रथम इन्होंने प्रस्तुत किया है। दस के स्थान पर तीन काव्य गुणों की स्वीकृति भी इन्हीं इन्हीं सर्वप्रथम की है।
भामा के प्रमुख काव्य सिद्धांत निन्नलिखित हैं:-
1) शब्द तथा अर्थ दोनों का काव्य होना (शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्)।
2) भरत मुनि द्वारा वर्णित दस गुणों के स्थान पर तीन गुणों (माधुर्य, ओज तथा प्रसाद) का वर्णन।
3) 'वक्रोक्ति' को सभी अलंकारों का प्राण मानना।
4) दस विध काव्य दोषों का विवेचन।
5) 'रीति' को न मानकर काव्य गुणों का विवेचन।
3. दण्डी
आचार्य दण्डी का समय सप्तम शती स्वीकार किया गया है। यह दक्षिण भारत के निवासी थे। दण्डी पल्लव नरेश सिंह विष्णु के सभा पंडित थे। दंडी अलंकार संप्रदाय से सम्बद्ध है तथा इनके तीन ग्रंथ उपलब्ध होते हैं 'काव्यदर्श', 'दशकुमारचरित' और 'अवन्तिसुन्दरी कथा'। प्रथम ग्रंथ काव्यशास्त्र-विषयक है, और शेष दो गद्य काव्य काव्य है। काव्यदर्श में तीन परिच्छेद हैं और श्लोकों की कुल संख्या ६६०है।
काव्य के विभिन्न अंगों का अलंकार में ही अंतर्निहित समझना इनका मान्य सिद्धांत था। यहां तक कि रस, भाव अादि को भी इन्होंने रसवदादी अलंकार माना है। भामह के समान इन्होंने भी वैदर्भ और गौड ये दो काव्य-रूप माने हैं, तथा इन्हें 'मार्ग' नाम दिया है। गौड मार्ग की अपेक्षा वैदर्भ मार्ग इन्हें अधिक प्रिय था, फिर भी गौड मार्ग को इन्होंने सर्वथा हेय तथा त्याज्य नहीं कहा। अलंकारों के लक्षणों मे इन पर भामह का स्पष्ट प्रभाव है।
काव्य के विभिन्न अंगों का अलंकार में ही अंतर्निहित समझना इनका मान्य सिद्धांत था। यहां तक कि रस, भाव अादि को भी इन्होंने रसवदादी अलंकार माना है। भामह के समान इन्होंने भी वैदर्भ और गौड ये दो काव्य-रूप माने हैं, तथा इन्हें 'मार्ग' नाम दिया है। गौड मार्ग की अपेक्षा वैदर्भ मार्ग इन्हें अधिक प्रिय था, फिर भी गौड मार्ग को इन्होंने सर्वथा हेय तथा त्याज्य नहीं कहा। अलंकारों के लक्षणों मे इन पर भामह का स्पष्ट प्रभाव है।
4. उद्भट
उद्भट कश्मीर राजा जयापीड़ के सभा-पण्डित थे। इनका समय नवम शती का पूर्वार्द्ध है। यह अलंकार वादी सिद्धांत से संबंध आचार्य हैं। इनकी तीन ग्रंथ प्रसिद्ध हैं- 'काव्यालंकारसारसंग्रह', 'भामह-विवरण' और 'कुमारसम्भव'। इनमें से केवल प्रथम ग्रंथ उपलब्ध है जिसमे अलंकारो़ का आलोचनात्मक एवं वैज्ञानिक ढंग से विवेचन काया गया है।
दण्डी के सामान ये भी रस, भाव आदि को रसवदादि अलंकारों के अंतर्गत मानते हैं। इन अलंकारों को सर्वप्रथम व्यवस्थित रूप देने का श्रेय इनको है।अनुप्रास अलंकार के अंतर्गत उप-नागरिका आदि वृत्तियों के निरूपण करने की जो शैली आगे चलकर मम्मट ने चलायी, उसका मूलाधार भी यही ग्रन्थ काव्यालंकारसारसंग्रह है।
उद्भट के विशिष्ट सिद्धांत निम्नलिखित हैं–
1) अर्थ भेद से शब्द भेद की कल्पना।
2) श्लेष को सभी अलंकारों में श्रेष्ठ मानते हुए श्लेष के दो प्रकार– शब्द श्लेष तथा अर्थ श्लेष की कल्पना तथा दोनों को अर्थालंकारों में ही परिगणित करना।
3) अर्थ के दो भेदों की कल्पना– विचारित-सुस्थ तथा अविचारित रमणीय।
4) काव्य गुणों को संघटना का धर्म मानना।
5. वामन
उद्भट के समान वामन भी कश्मीरी राजा जयापीड़ के सभा-पंडित थे। इनका समय ८०० ई. के आसपास है। इनका प्रसिद्ध ग्रंथ 'काव्यालंकारसूत्रवृत्ति' है।काव्यशास्त्रीय ग्रंथों में यह पहला सूत्र-बद्ध ग्रंथ है। सूत्रों की वृत्ति भी स्वयं वामन ने लिखी है। इस ग्रंथ में ५ अधिकरण है। प्रत्येक अधिकरणों में कुछ अध्याय है, और हर अध्याय में कुछ सूत्र। ग्रन्थ के पांचों अधिकरणों में अध्यायों की संख्या १२ हैं, सूत्रों की संख्या ३१९।
वामन रीतिवादी आचार्य थे। इन्होंने रीति को काव्य की आत्मा माना है। इनके मतानुसार गुण रीति के आश्रित हैं। गुण काव्य की नित्य अंग है, और अलंकार अनित्य अंग। रस को इन्होंने 'कान्ति' नामक गुण से अभिहित किया है। वामन पहले आचार्य हैं, जिन्होंने वक्रोक्ति को लक्षण का पर्याय मानते हुए इसे अर्थालंकारों में स्थान दिया है।
वामन के प्रमुख काव्य सिद्धांत निन्नलिखित हैं–
1) रीति को काव्य की आत्मा माना (रीतिरात्मा काव्यस्य)।
2) गुण और अलंकार का पयप्पर विभेद तथा गुण को अलंकार की अपेक्षा अधिक महत्व देना।
3)वैदर्भी, गौडी तथा पांचाली– इन तीन रीतियों का कल्पना।
4) वक्रोक्ति को सादृश्य मूलक लक्षणा मानना।
5) समस्त अर्थालंकारों को उपमा का प्रपंच मानना।
6. रुद्रट
रुद्रट कश्मीर के निवासी थे तथा इनका जीवन-काल नवम शती का आरंभ माना जाता है। इनके ग्रंथ का नाम 'काव्यालंकार' है, जिसमें १६ अध्याय हैं और कुल ७३४ पद है। यद्यपि रुद्रट अलंकारवादी युग के आचार्य हैं, किंतु भारत के उपरांत रसका व्यवस्थित और स्वतंत्र निरूपण इनके ग्रन्थ में उपलब्ध है। नायक-नायिका-भेद का विस्तृत निरूपण भी इन्होंने सर्वप्रथम किया है। कुछ विद्वान इन्हें अलंकारवादी आचार्य मानते हैं, किंतु अलंकार की अपेक्षा रस के प्रति इनका झुकाव कहीं अधिक है।
7. आनन्दवर्धन
आनंदवर्धन कश्मीर के राजा अवन्ति वर्मा के सभापंडित थे। इनका जीवन काल नवम शती का मध्य भाग है। आनंदवर्धन ने काव्यशास्त्र मे 'ध्वनि सम्प्रदाय' की स्थापना की। इनकी ख्याति 'ध्वन्यालोक' नामक अमर ग्रंथ के कारण है। इस ग्रंथ में चार उद्योग(अध्याय) है, तथा ११७ कारिकाएं(सूत्रों की व्याख्या)।
काव्यशास्त्रीय आचार्यों में आनंदवर्धन एक युगांतकारी आचार्य हैं। इन्होंने ध्वनि को काव्य की आत्मा माना। यद्यपि इन्होंने रस को ध्वनि का ही भेद माना है, पर रसध्वनि के प्रति अन्य ध्वनि-भेंदों की अपेक्षा इन्होंने अधिक समादर प्रकट किया है।
8. अभिनवगुप्त
अभिनवगुप्त कश्मीर के निवासी थे। यह दशम शती के अंत और एकादश शती के आरंभ में विद्यमान थे। इनका काव्यशास्त्र के साथ साथ दर्शनशास्त्र पर भी समान अधिकार था। यही कारण है कि काव्यशास्त्रीय विवेचन को आप अपना उच्च स्तर पर ले गए– ध्वन्यालोक पर 'लोचन' और नाट्यशास्त्र पर 'अभिनव-भारती' नामक टीकाएं इसके प्रमाण है। इन टीकाओं के गंभीर एवं स्वस्थ विवेचन तथा मार्मिक व्याख्यान के कारण इन्हें स्वतंत्र ग्रंथ का ही महत्व प्राप्त है, और अभिनवगुप्त को टीकाकार के स्थान पर 'आचार्य' जैसे महामहिमशाली पद से सुशोभित किया जाता है।
अभिनवगुप्त ने व्याकरण शास्त्र, ध्वनि शास्त्र और नाट्य शास्त्र का अध्ययन क्रमशः नरसिंह गुप्त, भट्ट इन्दुराज और भट्टतौत को गुरु मानकर किया।
अभिनवगुप्त का 'अभिव्यक्तिवाद' रस सिद्धांत में एक प्रौढ़ एवं व्यवस्थित वाद है, यद्यपि इस वाद का समय समय पर खंडन किया गया, किंतु फिर भी यह वाद अद्यावधि अचल बना हुआ है। अभिनवगुप्त ने 'तन्त्रालोक' नामक श्रेष्ठ दार्शनिक कृति की रचना की। यह ग्रंथ रत्न तंत्र-शास्त्र का विश्वकोष माना जाता है।
9. धनंजय और धनिक
धनंजय और धनिक दोनों भाई थे। वे दसवीं शताब्दी के अंत में विद्यमान थे। धनंजय ध्वनि विरोधी आचार्य थे तथा 'दशरूपक' नामक ग्रंथ की रचना की और धनिक ने उस पर 'अवलोक' नामक टीका लिखी है, जो विद्वतापूर्ण एवं सारगर्भित है। दशरूपक नाट्यशास्त्र से संबंधित ग्रंथ है इसमें चार प्रकार और लगभग ३०० कारिकाएँ हैं। रसनिष्पत्ति के विषय में इन्होंने व्यंजनावाद को अस्वीकृत कर तात्पर्यवाद का समर्थन किया है। साधारणीकरण के प्रसंग में इन्होंने सर्वप्रथम कवित्व का समर्थन शब्दों में निर्देश किया है। शांत रस को ये काव्य में तो ग्राह्य मानते हैं पर नाटक में नहीं।
10. कुन्तक
कुंतक कश्मीर के निवासी थे तथा इन्हें 'वक्रोक्ति' संप्रदाय के प्रवर्तक माना जाता है। कुंतक का समय दशम शती का अंत तथा एकादश शती का आरंभ माना जाता है। इनकी प्रसिद्धि 'वक्रोक्तिजीवितम्' नामक ग्रंथ के कारण है। इसमें 4 उन्मेष है। कुंतक प्रतिभासंपन्न आचार्य थे। इन्होंने वक्रोक्ति को काव्य का 'जीवित' माना। इन्होंने सर्वप्रथम अलंकारों की वर्तमान संख्या को स्थिर करने का मार्ग दिखाया। स्वभावोक्ति अलंकार के संबंध में इन की धारणा साहसपूर्ण है, और रसवदादि अलंकारों का विवेचन नितांत मालिक है।
11. महिम भट्ट
महिम भट्ट कश्मीर के निवासी थे। इनके पिता का नाम श्री धैर्य तथा गुरु का नाम श्यामल था। इनका समय ११ वीं शती का प्रारंभिक चरण है। इनकी कृति का नाम व्यक्ति विवेक है, जिसका शाब्दिक अर्थ है व्यक्ति अर्थात व्यंजना का विवेक। महिम भट्ट ने ध्वनि मत के खंडन के लिए 'व्यक्ति विवेक' की रचना की। व्यक्ति विवेक तीन विमर्शों(अध्यायों) में विभक्त है। महिम भट्ट अनुमानवादी आचार्य थे परंतु इस ग्रंथ में अनुमानवाद का अनुसरण नहीं हुआ। यह ग्रंथ गम्भीर गद्य शैली में लिखित होने के कारण पर्याप्त रूप में जटिल है।
12. क्षेमेन्द्र
क्षेमेन्द्र कश्मीर के निवासी थे। वे ११ वीं सदी के उत्तरार्ध में विद्यमान थे। क्षेमेन्द्र को 'औचित्य संप्रदाय' का प्रवर्तक माना जाता है। क्षेमेन्द्र के शिष्य गुरु अभिनवगुप्त थे। इनके तीन ग्रंथ प्रसिद्ध है– 'औचित्यविचारचर्चा', 'सुवृत्ततिलक' और 'कविकण्ठाभरण'।
प्रथम ग्रंथ में औचित्य को लक्ष्य में रखकर इन्होंने वाणी के विभिन्न अंगों–वाक्य, गुण, रस, क्रिया, करण, लिंग, उपसर्ग, देश, स्वभाव आदि का स्वरूप निर्धारित किया है। द्वितीय ग्रंथ में छंद के औचित्य का निर्देश है। तीसरा ग्रंथ कवि-शिक्षा से संबंधित है।क्षेमेन्द्र के ये ग्रंथ लघुकाय हैं, पर इनमें काव्य के विभिन्न अंगों पर प्रकाश डाला गया है। यद्यपि 'औचित्य' कोई नया तत्व नहीं है, आनंदवर्धन 'औचित्य' शब्द को और महिम भट्ट 'औचित्य' शब्द को अपने दोष-प्रकरणों में स्थान दे आए थे, पर इसी के आधार पर समस्त वागडःगों को निर्धारित कर देना क्षेमेन्द्र की मौलिक प्रतिभा का परिचायक है। कुछ विद्वान औचित्य को भी काव्यशास्त्र का एक सिद्धांत मानने लगे हैं।
13. मम्मट
मम्मट कश्मीर के निवासी माने जाते हैं। इनका जीवन काल ११ वीं शती का उत्तरार्थ है। इनकी प्रख्याति 'काव्यप्रकाश' के कारण है, जिसमें दस उल्लास हैं। काव्यशास्त्र की आचार्य मम्मट का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है। इनके निरूपण की प्रमुख विशेषता है अपने समय तक की काव्यशास्त्रीय सभी विषय सामग्री का स्वच्छ एवं उपादेय संकलन; तथा उसका ध्वनि-संप्रदाय की दृष्टि से व्यवस्थापूर्ण संपादन। यह ग्रंथ इतना सुव्यवस्थित और सुसम्बद्ध है कि अद्यावधि इसके अध्ययन के बिना काव्यशास्त्र का ज्ञान अपूर्ण समझा जाता है। मम्मट ने ध्वनि संप्रदाय की पुष्टि करने के लिए अनुमानवादी, अभिधावादी, लक्षणावादी आदिआचार्यों का प्रबल तर्को द्वारा खंडन प्रस्तुत कर ध्वनि की स्थापना की है। अभिनवगुप्त की 'अभिनव भारती' अथवा अन्य स्रोतों से भरतसूत्र के चार व्याख्याताओं, भट्ट लोल्लट आदि, के व्याख्यान को इन्होंने अत्यंत संक्षिप्त किंतु सारगर्भित एवं सुसम्बद्ध शैली में इतनी परिपूर्णता से प्रस्तुत किया है कि काव्यशास्त्र के विद्यार्थी को मूल स्रोत के अध्ययन की विशेष आवश्यकता नहीं रहती।
काव्यप्रकाश की अन्य विशेषता है–तीन गुणों की स्वीकृति और उनमें वामन सम्मत २० गुणों का समाहार। दोष-निरूपण का विस्तार इस ग्रंथ की अन्य उल्लेखनीय विशेषता है। ध्वनि-संप्रदाय के समर्थक होने के नाते इन्होंने आनंदवर्धन के समान अन्य काव्यांगों का स्वरूप रस-ध्वनि के आधार पर स्थिर किया है।
14. रुय्यक
रुय्यक कश्मीर-निवासी थे। इनका समय १२ वीं शती का मध्यकाल है। इनका प्रसिद्ध ग्रंथ 'अलंकारसर्वस्व' है। इन्होनें 'व्यक्तिविवेक' पर भी टीका लिखी थी। पर इसमें उन्होंने महिम भट्ट के अनुमानवाद को अमान्य ठहराया है, तथा एक स्थान पर उसका उपवास भी किया है।
'अलंकारसर्वस्व' अलंकारों का प्रौढ़ एवं प्रमाणिक ग्रंथ है। रुय्यक के ग्रंथ की एक अन्य विशेषता है इसके आरंभ में अपने पूर्ववरतीे आचार्य के विभिन्न सिद्धांतों के संबंध में सारगर्भित, मार्मिक और तुलनात्मक समीक्षा का समावेश। यह समीक्षण जितना संक्षिप्त है, उतना ही महत्वपूर्ण और सुसम्बद्ध भी। इनका ग्रंथ अलंकार विषयक है, किंतु इसी आधार पर इन्हें भामह आदि के समान अलंकारवादी नहीं कहना चाहिए। ये अलंकार निरूपक तो है, पर इन्हें अलंकारवादी किसी रुप में नहीं कहना चाहिए।
15. विश्वनाथ
विश्वनाथ कदाचित् उड़ीसा के निवासी थे। इनका समय १४वीं शती का पूर्वार्द्ध है। आचार्य विश्वनाथ ने दस परिच्छेदों(अध्यायों) में 'साहित्यदर्पण' नामक प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की।
विश्वनाथ ने मम्मट, आनंदवर्धन, कुंतक, भोजराज आदि के काव्य लक्षणों का खंडन प्रस्तुत करने के उपरांत रस को काव्य की आत्मा घोषित करते हुए काव्य का लक्षण निर्धारित किया है। इन्होंने सबसे घोर खण्डन मम्मट के काव्यलक्षण का किया गया है। किंतु फिर भी अपने ग्रंथ की अधिकांश सामग्री के लिए वे मम्मट के ही ऋणी हैं। अलंकार के स्वरूप निर्देश के लिए इन्होंने मम्मट के अतिरिक्त रुय्यक भी सहायता ली है।
16. जगन्नाथ
जगन्नाथ का यौवनकाल दिल्ली के प्रसिद्ध शासक शाहजहां के दरबार में बीता था। शाहजहां ने ही इन्हें 'पंडितराज' की उपाधि से विभूषित किया था। अतः इनका समय १७वीं शती का मध्यभाग है। इनकी प्रसिद्ध रचना 'रसगंगाधर' है, जो अपूर्ण है। जगन्नाथ का काव्यलक्षण अधिकांशतः परिपूर्ण एवं सुबोध है। इन्होंने काव्य के चार भेद माने हैं–उत्तमोत्तम, उत्तम, मध्यम तथा अधम। ये ध्वनिवादी आचार्य थे फिर भी रस के प्रति इन्होंने अधिक समादर प्रकट किया है। भरत सूत्र पर उपलब्ध ११ व्याख्याओं का विशुद्ध संकलन भी इसी ग्रंथ में किया गया है। इन्होंने सर्वप्रथम गुण को रस के अतिरिक्त शब्द, अर्थ और रचना का भी धर्म समान रुप से स्वीकार किया है।
जगन्नाथ की समर्थ भाषा शैली, सिद्धांत प्रतिपादन की अद्भुत एवं परिपक्व विचार शक्ति और खंडन करने की विलक्षण प्रतिभा इन्हें प्रौढ़ एवं सिद्धहस्त आचार्य मानने को बाध्य करती है। रसगंगाधर के अतिरिक्त काव्यशास्त्र के संबंध मे इनका एक अन्य ग्रंथ भी उपलब्ध है– चित्रमीमांसा खंडन।
सन्दर्भ सामग्री
1) भारतीय काव्यशास्त्र:- डॉ विश्वम्भरनाथ उपाध्याय
2) भारतीय काव्यशास्त्र की भूमिका :- योगेंद्र प्रताप सिंह
3) भारतीय काव्यशास्त्र के नए छितिज:- राम मूर्ति त्रिपाठी
4) भारतीय एवं पाश्चात्य काव्य सिद्धांत:- डॉ. गणपति चंद्र गुप्त
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