-शालू 'अनंत'
मस्तिष्क की दुकान में मनियारी के सामान से भी कही अधिक सामान मौजूद है। मनियारी मने किराने की दुकान। तो दिमाग एक ऐसा दुकान है जिसमे किराने की दुकान से भी अधिक सामान है। और अगर उन सामानों का प्रयोग न किया जाये तो वह केवल एक स्टोर रूम की तरह बनकर रह जाता है।
दिनदैन्य में कितनी ही चीजे होती है जो हम देखते, महसूस करते हैं.. लेकिन उन अनुभवों को शब्द कुछ लोग ही दे पाते हैं. ये इसलिए नहीं की उनमे अलग प्रतिभा हैं.. बल्कि इसलिए की उनकी आदत हो चुकी हैं लिखने पढ़ने की। मुक्तिबोध एक साहित्यिक की डायरी में लिखते हैं की "विचारों में एक विचित्र प्रकार की उत्तेजना होती है। इस उत्तेरजना को यदि पी लिया जाये तो वह दिल को तकलीफ देती है।" तभी तो लेखक और एक सामान्य व्यक्ति में फर्क होता है। लेखक अपने मन की बात को, अपने मन के अवसाद को शब्द दे देता है और समय व्यक्ति ऐसा न कर पाने के कारण घुटता रहता है। लेकिन इसका अर्थ ये नहीं की व्यक्ति को साहित्यिक दुनिया में ही रहना पड़े, साहित्य की हर गतिविधि पर नजर रखनी पड़े। लेखक के शब्दों में "जो व्यक्ति साहित्यिक दुनिया से जितना दूर रहेगा, उसमें अच्छा साहित्यिक बनने की सम्भावना उतनी ही ज्यादा बढ़ जाएगी। साहित्य के लिए साहित्य से निर्वासन आवश्यक है।"
मुक्तिबोध मूलतः कवि हैं और अपनी डायरी के माध्यम से उन्होंने अपने समय की विवादित विधा कविता की ही चर्चा की है। एक साहित्यिक की डायरी में उन्होंने अपने काल्पनिक मित्र के साथ विभिन विषयों पर चर्चा की है जो तत्कालीन समय में साहित्य के विवादित विषय रहे हैं या जिनपर आमतौर पर नज़र नहीं डाली गई है। १९५४ से १९६४ तक का जो समय है उसके मुख्य कवियों में अज्ञेय के साथ मुक्तिबोध का भी नाम लिया जाता है, लेकिन साथ ही मुक्तिबोध को अनेक विवादों का भी सामना करना पड़ा है, कम से कम जब तक वह जीवित रहे उन्हें अनेक विवादों और तिरस्कारों का सामना करना पड़ा बिल्कुल निराला जी की तरह। नयी कविता को लेकर कई आलोचकों का कथन है की नयी कविता में ह्रदय के आवेगात्मक चित्रण, जोश और आवेग का विशेष स्थान नहीं है। इसपर मुक्तिबोध कहते है की माना "इसमें आवेश को स्थान नहीं दिया गया है, पर आज की कविता बौद्धिक और आत्मीय है।"
मुक्तिबोध के अनुसार उस समय नयी कविता में दो तबके काम कर रहे थे। "एक वो जो खाते-पीते वर्ग के सुशिक्षित लोग हैं। उन्हें खूब अच्छी फुरसत है। उसका वे सदुपयोग भी करते हैं। उन्हें महत्वपूर्ण पुस्तके सुलभ हैं। वे कला-कुशल भी हैं। इसके अलावा, उनमें से बहुतेरों में वैज्ञानिक दृष्टि भी है।" और दूसरा वर्ग वह जिसमे शहर या कस्बे के अध-पढ़ गरीब लोग आते है। इनकी परिस्थितियों में जीवन का मानवीय यथार्थ मौजूद है। साथ ही ये लोग एक यंत्र-चक्र में पिस रहे है। इन लोगों में क्षोभ और क्षोभपूर्ण यथार्थ के अंकन के प्रति, आवेश के प्रति आग्रह होना स्वाभाविक है। लेखक आगे कहते हैं की वे कुलीन लोग इस आग्रह को अच्छी निगाह से नहीं देखते। वे चाहते हैं की अपने को पीसनेवाली परिस्थितयों और प्रवृतियों को नंगे पाशविक रंग में पेश न किया जाये। लेकिन इनके तर्क अलग होते हैं जैसे कविता लौटानी हो तो उसके content में कमी निकाल कर लोटा दी जाएगी न की ये कहकर की इसमें यथार्थ का नग्न चित्र है या इसमें बौद्धिकता अधिक है। लेखक कही न कही अपनी लौटाई जा रही रचनाओं की भी बात कर रहे हैं जिसमे नग्न यथार्थ को पेश किया गया है या जो इस प्रथम वर्ग के समझ से परे है।
लेखक आगे कविता में मानव भावना और उसके उत्तरदायित्व की बात करते हैं। वे कहते हैं "काव्य-सत्य भावना-प्रसूत है, परन्तु उस काव्य सत्य का नैतिक उत्तरदायित्व है। हम उसे केवल काव्य-सत्य कहकर नहीं टाल सकते। वह सत्य हमारे व्यक्तित्व से कुछ माँग करता है।" माँग विषय और दृष्टिकोण की। हर विषय पर हर व्यक्ति अलग अलग दृष्टि रखता है, क्योंकि सबकी अनुभूतियाँ अलग अलग होती हैं। जरूरत है उद्देश्य के साथ अपने दृष्टिकोण को व्यक्त करने की।
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