-शालू 'अनंत'
इस स्वच्छता अभियान के तहत शौचालयों का निर्माण तो खूब कराया जा रहा है लेकिन सीवर का क्या? उसपर तो ध्यान ही नहीं दिया जा रहा है, कही तो कुछ गलती हो रही है कि शौचालयों की टंकियां भर जाती है और फिर उन टंकियों को उन सीवरों को साफ़ करने किसी सफाई कर्मचारी को ही उतरना होता है। क्या यह खिलवाड़ नहीं है उनकी जान के साथ। आज कई काम आधुनिक तकनीकों के माध्यम से हो रहे है यहाँ तक कि सडकों की सफाई के लिए भी मशीने आ गई है, फिर क्यों सीवर सफाई के लिए एक जिन्दा इंसान की बलि चढ़ रही है। ऐसे में तो 'स्मार्ट सिटी' और 'डिजिटल सिटी' का दावा भी बेकार जान पड़ता है।
लेकिन समस्या यह नहीं है की आधुनिक तकनीक विकसित नहीं हो रहे, समस्या यह है की हमारी सरकार और राजनितिक दल इस तरफ ध्यान ही नहीं दे रहे है, अगर वह इस तरह देखें तो यह समस्या जल्द ही सुलझ सकती है लेकिन तबतक न जाने और कितने लोगों को निगल चूका होगा यह सीवर। ऐसा नहीं है की देश में कानूनों की कमी है, देश में दो दो कानून मौजूद है इन लोगों के लिए। आज से पच्चीस साल पहले 1993 में मैला प्रथा उन्मूलन कानून पारित हुआ जिसके तहत हाथ से मैला साफ़ करने वालों को मुक्ति दी गई, यह काम एक विशेष वर्ग का नहीं रह गया। लेकिन आज भी यह काम एक विशेष वर्ग ही कर रहा है और उसे काफी घिनौनी नजरों से देखा जाता है। इसी कानून में 2013 में यह भी कहा गया की इन मैला उठाने वालों को दूसरे रोजगारों में काम दिया जायेगा और इनके पुनर्वास की व्यवथा की जाएगी। लेकिन अगर यह कानून काम कर रहा होता तो क्या ये लोग आज भी मैला उठाने का काम करते या फिर सीवर में उतरने का जोखिम मोल लेते।
यहाँ रघुवीर सहाय की कविता याद आ जाती है:-
हम ग़रीबी हटाने चले
और उस समाज में जहाँ आज भी दरिद्र होना दीनता नहीं
भारतीयता की पहचान है
दासता विरोध है दमन का प्रतिकार है
यहाँ गलती किसकी है? उस नगरपालिका की जो सीवर सफाई का काम कुछ एजेंसियों को थमा कर अपनी जिम्मेदरी से छुटकारा पा जाते है, या उस एजेंसी या ठेकेदारों कि जो इसकी सफाई के लिए अस्थाई मजदूर रखते है जिन्हे सीवर में उतारते समय सुरक्षा के कोई साधन नहीं दिए जाते, होती है तो सिर्फ एक रस्सी। गलती तो सभी अपने अपने स्तर पर कर रहे है। सीवर, मेनहोल या सेप्टिक टैंक साफ करने वाले मजदूरों को इंसान ही नहीं समझा जाता, उस मजदूरों को कोई स्वास्थ्य बिमा भी नहीं दी जाती ताकि अगर कोई हादसा हो भी जाये तो उसके परिवार को आर्थिक संकट का सामना न करना पड़े। हमारी नगरपालिका जानती है कि सीवर सफाई का काम बहुत खतरनाक है और अगर उसके लिए स्थाई मजदूरों को उतारा जायेगा तो दुर्घटना होने पर उन्हें जवाब देना होगा आगे, इसलिए वह ये जिम्मा किसी ठेकेदार को सौप देती है।
यह ठेकेदार मजदूरों को रबड़ के जूते और दस्ताने तो देते है पर गैस मास्क या टोर्च नहीं देते, और सेप्टिक टैंक्स कि जहरीली गैसे कई बार असहनीय हो जाती है जिससे जल्द ही इंसान का दम घुट जाता है। इसके बाद शुरू होता है मौत का तांडव। पहले कर्मचारी की कोई हलचल नहीं होती तब उसे देखने दूसरा कर्मचारी जाता है और वह भी दम घुटने से मर जाता है, फिर तीसरा, चौथा.. और किसी को भी बचाव के उपकरण नहीं दिए जाते।
गलती केवल सरकार व व्यवस्था कि भी नहीं है, गलती हम आम जनता कि भी है। दरअसल भारत में यह माना जाता है कि यह मैला ढोने का काम, यह सफाई का काम एक विशेष वर्ग का काम है। भारत में जिसे दलित कहा जाता है, यह काम सदियों से उन्ही का माना जाता है और उन्हें करना ही है यह उनकी नियति है ऐसा विश्वास यहाँ के लोगों में बैठ चूका है। लेकिन यह हाल केवल भारत का है, विश्व के अन्य देशो में भी मैला ढोया जाता है, वहाँ भी गंदगी होती है, लेकिन वहाँ के लोग इस काम और इस काम को करने वालों को सम्मान कि नजर से देखते है। हमारे यहाँ सोचने समझने का ढांचा जातिगत है। इसे बदलने कि जरूरत है, लेकिन इसमें अभी काफी समय लगना है। तो अभी क्या किया जाए??
जब तक समाज के लोग इस स्थिति के विरुद्ध अपनी आवाज नहीं उठाएंगे, जबतक लोग जागरूक नहीं होंगे देश के कानूनों और अपने अधिकारों को लेकर साथ ही सरकार को भी अब स्वछता मिशन के तहत और कोई काम हाथ में लेने से पहले सीवर की सफाई के इस पुराने मसले को सुलझा लेना चाहिए,जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक यह मौत का तमाशा ऐसे ही चलता रहेगा।
ऐसे में रघुवीर सहाय की वह कविता सहसा याद आ जाती है जिसमे जागरूक होने को और अपने दिमाग का इस्तेमाल करते हुए युग बदलने को कहते है
इस लज्जित और पराजित युग में
कहीं से ले आओ वह दिमाग़
जो खुशामद आदतन नहीं करता
शायद इसलिए कवि को भविष्यद्रष्टा भी कहा जाता है.. रघुवीर सहाय की अनेक कविताओं में ऐसे स्वर मिल जायेंगे जो समाज और शासन की सच्चाइयों को हमारे सामने लाते है।
© शालू कश्यप
No comments:
Post a Comment